फसाद की जड़ धारा 370 – नरेन्द्र सहगल
अलगाववादियों का यह ‘सुरक्षा कवच’ कब तक?
एक विशेष समुदाय के तुष्टीकरण के लिए भारत के संविधान में जबरदस्ती डाली गई धारा 370 भारत की राष्ट्रीयता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और संघीय ढांचे का मजाक उड़ा रही है। अब तो यह धारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ध्येय वाक्य ‘सब का साथ – सब का विकास’ को भी चुनौती दे रही है। जम्मू-कश्मीर में सक्रिय सभी वर्गों का साथ भी नहीं मिल रहा और विकास भी एक विशेष समुदाय के प्रभावशाली लोगों का ही हो रहा है। वास्तव में संक्रमणकालीन, अस्थाई और एक विशेष उपबंध के रूप में जोड़ी गई यही धारा 370 कश्मीर घाटी को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनने की प्रेरणा दे रही है। अलगाववाद को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने वाली यह धारा आतंकवादियों का सुरक्षा कवच भी बन रही ही है।
सर्वविदित है कि जम्मू-कश्मीर के शासक महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को इस राज्य का भारत संघ में विलय करने करने के लिए ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर कर दिए थे और तत्कालीन गवर्नल जनरल लार्ड माउंटबेटन ने 27 अक्टूबर को ही पूरे जम्मू-कश्मीर को भारत संघ का अभिन्न हिस्सा बना दिया था। दुर्भाग्यवश तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने मित्र कट्टरपंथी नेता शेख अब्दुल्ला को प्रदेश की सत्ता सौंप दी। शेख के कहने पर ये राष्ट्रघातक फैसला किया गया कि विलय पर अंतिम फैसला जम्मू-कश्मीर की विधानसभा करेगी। जब तक विधानसभा निर्णय नहीं देती तब तक के लिए अस्थाई व्यवस्था के रूप में भारतीय संविधान में धारा-370 जोड़ दी गई, परन्तु जब फरवरी 1956 में प्रदेश की विधानसभा ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को मान्यता दे दी तो भी इस अस्थाई धारा को हटाया नहीं गया। ध्यान दें कि संविधान सभा में इस धारा पर जमकर बहस हुई थी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी, डॉ. भीमराव अंबेडकर और सरदार पटेल जैसे अधिकांश नेताओं ने इसका विरोध करते हुए कहा था — ‘‘इससे जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत के साथ समरस करने में दिक्कतें खड़ी होंगी। यही धारा कश्मीर घाटी के लोगो में अलगाववाद के बीज बोएगी’’। परिणाम सबके सामने है। कश्मीर में एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है जो भारत की संसद, संविधान, राष्ट्रीय ध्वज इत्यादि को स्वीकार नहीं करता। खतरनाक स्थिति तो यह है कि यही वर्ग धारा-370 की आड़ में सभी प्रकार की राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और कानूनी सुविधाएं ले रहा है।
धारा-370 के अंर्तगत जो ढेरों सुविधाएं जम्मू-कश्मीर को दी गई हैं वास्तव में वही वर्तमान फसाद की जड़ हैं। जम्मू-कश्मीर का अपना अलग संविधान है, अपना भिन्न राष्ट्रीय झंडा है जिसका राष्ट्रध्वज तिरंगे के साथ लगना जरूरी है। प्रदेश की विधानसभा का कार्यकाल भी 6 वर्ष का है। भारत की संसद का बनाया हुआ कोई भी कानून वहां की विधानसभा की अनुमति के बिना लागू नहीं हो सकता। जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त है, प्रदेश की (स्टेट सब्जेक्ट) और भारत की। जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को भारत की नागरिकता प्राप्त है परन्तु भारत के किसी भी प्रान्त के नागरिक को जम्मू-कश्मीर की नागरिकता प्राप्त नहीं है। उसे वहां संपत्ति खरीदने, सरकारी नौकरी करने, मतदान करने जैसे बुनियादी अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं। जम्मू-कश्मीर में बसे भारतीय नागरिक (नान स्टेट सब्जेक्ट) वहां की सरकारी वित्तीय संस्थाओं से लोन इत्यादि नहीं ले सकते। इनके बच्चे वहां विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते। परिवार कल्याण/जन्मनियंत्रण आदि कोई भी कानून वहां लागू नहीं होता। धार्मिक स्थलों से संबंधित पूजा स्थल विधेयक वहां लागू नहीं होता। अर्थात धर्मनिरपेक्षता के विस्तृत दायरे में जम्मू-कश्मीर नहीं आता। भारत के राष्ट्रपति महोदय धारा-356 के तहत जम्मू-कश्मीर को कोई निर्देश नहीं दे सकते और न ही वित्तीय आपात स्थिति की घोषणा कर सकते हैं। भारतीय संविधान में निर्देशित मौलिक कर्तव्यों की सुचारू व्यवस्था भी वहां नहीं है, जिसके तहत राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रीय चिन्हों को सम्मान नहीं मिलता। धारा-370 दो-राष्ट्र के सिद्धांत को पुर्नजीवित करना और उसे भविष्य में सुरक्षित रखने का मार्ग प्रशस्त करती है। वस्तुतः धारा-370 सारे देश के लिए विघटन के द्वार खोलती है। इस धारा की आड़ लेकर कश्मीर घाटी के नेता सदैव भारत सरकार की ओर से संचालित राष्ट्रीय महत्व के प्रकल्पों का जातिगत आधार पर विरोध करते हैं।
उल्लेखनीय है कि 80 के दशक में स्थापित वजीर कमीशन ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित अनेक राजनीतिक सुधार करने के सुझाव दिए थे, परन्तु धारा-370 के कारण आज तक लागू नहीं हो सके। सच्चाई यह है कि अब तक देश का अरबों-खरबों रुपया कश्मीर के विकास और सुरक्षा के नाम पर खर्च हो चुका है। नतीजा सबके सामने है। अराष्ट्रीय तत्व सिर उठा कर खड़े हो गए। देशद्रोही तत्वों को भारत के विरोध में खुलकर दुष्प्रचार करने का मौका मिल गया। पाकिस्तानी तत्वों ने ऐसे अलगाववादी संगठनों की पीठ थपथपाई और कश्मीर के युवकों ने हथियार उठा लिए। चार लाख से भी ज्यादा हिन्दुओं को अपने घर, संपत्ति और देव देवालय छोड़कर अपने ही देश में दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर होना पड़ा। यह भी कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिन लोगों ने विदेशी हमलावरों के आगे घुटने टेके, उनकी आक्रामक तहजीब को अपनाने के लिए अपना धर्म छोड़ा, अपने पूर्वजों की गौरवशाली संस्कृति (कश्मीरियत) को तिलांजलि दे दी और पाकिस्तान के पिट्ठू बन गए, वे तो आज कश्मीर के मालिक बने बैठे हैं और जिन्होंने अपना धर्म/संस्कृति नहीं छोड़ी, अपनी सनातन कश्मीरियत के साथ जुड़े रहे वे कश्मीरी पंडित अपने घरों से खदेड़ दिए गए। धारा-370 का यह सबसे बड़ा दुष्परिणाम है।
वैसे भी धारा-370 का औचित्य अब समाप्त हो गया है, अधिकांश कश्मीरियों के भारत के खिलाफ खुली बगावत पर उतर आने और भारत की सेना के साथ छापामार युद्ध शुरु हो जाने के बाद अब इस धारा का कोई अर्थ समझ में नहीं आता। अब तो देश की अखंडता, सुरक्षा और सनातन कश्मीरियत/स्वाभिमान को बचाना महत्वपूर्ण हो गया है। राज्यपाल शासन के दौरान यह कार्य किया जा सकता है। आज केन्द्र की सरकार उन लोगों के हाथ में है जो प्रारम्भ से ही धारा-370 को बनाए रखने का विरोध करते आ रहे हैं। यह भी ध्यान रखें कि मात्र राज्यपाल शासन की घोषणा से काम नहीं होने वाला प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति और तुरन्त निर्णय लेने की इस समय आवश्यकता है। अतः धारा 370 के सभी अवरोधों को हटाकर प्रबल सैनिक अभियान के साथ देशद्रोहियों को पूर्णतः समाप्त करना यह अब समय की जरूरत है।