आखिर मुफ्तखोरी की राजनीति कब तक ?

अनिल निगम

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भारत में मुफ्तखोरी की राजनीति ने हमारे समाज को खतरनाक मुहाने पर ले जाकर खड़ा कर दिया है। विभिन्‍न राजनैतिक दल अपने राजनैतिक निहितार्थों को साधने के लिए सरकारी खजाने को दोनों हाथों से उलीच रहे हैं। जिस तरीके से हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने पोंगल त्‍योहार पर हर राशनकार्ड धारक को 1000 रुपये नकद उपहार देने की घोषणा की और मध्‍य प्रदेश की कांग्रेस पार्टी के नेतृत्‍व वाली सरकार ने किसानों का 70 हजार करोड़ रुपये का कर्ज माफ करने की घोषणा की, उससे यह सवाल खड़ा होना स्‍वभाविक है कि आखिर यह लोकलुभावन वाली राजनीति कब तक चलती रहेगी? सवाल यह भी है कि क्‍या मुफ्तखोरी की राजनीति से देश का सामाजिक और आर्थिक तानाबाना स्‍वस्‍थ बना रहेगा?

पोंगल पर हजार रुपये हर राशनकार्ड धारी को बांटने के मामले में तो तमिलनाडु उच्‍च न्‍यायालय को हस्‍तक्षेप भी करना पड़ा। अदालत ने कहा कि यह उपहार रेवड़ी की तरह हर किसी को न बांटा जाए। यह सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को ही दिया जाए। मुफ्त में चीजें बांटने की समस्‍या सिर्फ तमिलनाडु और मध्‍य प्रदेश सरकार की नहीं है। जनता को मुफ्तखोरी की आदत डालने के लिए कमोवेश सभी छोटे-बड़े राजनैतिक दल दोषी हैं।



वर्ष 2015 में दिल्‍ली के विधानसभा चुनावों के दौरान आम आदमी पार्टी ने दिल्‍ली वासियों को नि:शुल्‍क पानी और बिजली देने की घोषणा कर 70 सीटों में से 67 पर कब्‍जा कर लिया था। इसी तरह से उत्‍तर प्रदेश के 2012 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने मुफ्त लैपटॉप बांटने और 35 साल से अधिक आयु के बेरोजगारों को एक हजार रुपये मासिक भत्‍ता देने की घोषणा कर चुनाव में विजय हासिल की। तमिलनाडु सरकार ने 2011 में राशनकार्ड धारियों को मुफ्त चावल वितरण की योजना शुरू की थी। आंध्र प्रदेश के मुख्‍यमंत्री चंद्रबाबू नायडु ने वर्ष 2014 में किसानों एवं बुनकरों के कर्ज को माफ किया। इसके अलावा उनकी सरकार ने विभिन्‍न त्‍योहारों में राशन के पैकेट मुफ्त में बांटे।

नि:संदेह, भारत का संविधान लोककल्‍याण की अवधारणा पर आधारित है। इसी अवधारणा के मद्देनजर समाज के गरीब तबके के लोगों को हमारी सरकार सब्सिडी भी प्रदान करती है। वास्‍तविकता तो यह है कि हमारे देश की जनता राशन, बिजली, पानी, लैपटाप, स्‍मार्ट फोन आदि मुफ्त नहीं चाहती। देश की गरीब जनता को अगर कुछ चाहिए तो वह है, न्‍यूनतम पैसे में बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य और शिक्षा। जनता मुफ्त मे तनख्‍वाहें नहीं लेना चाहती। देश के युवाओं को बेहतर रोजगार की दरकार है।

गौरतलब है कि जून 2016 में स्विटजरलैंड में वहां की सरकार ने नागरिकों के बीच एक बेसिक इनकम गारंटी के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराया था। जिसमें हर वयस्‍क नागरिक को बिना काम के भी लगभग डेढ़ लाख रुपये प्रतिमाह देने की पेशकश की गई थी। लेकिन जनमत संग्रह में वहां के 77 फीसदी नागरिकों ने मुफ्तखोरी की पेशकश को ठुकरा दिया था। कहने का आशय यह है कि किसी भी देश की जनता इस तरह की चीजें मुफ्त में नहीं लेना चाहती। लेकिन हमारे देश के राजनैतिक दल जनता को मुफ्तखोरी का लती बनाने पर तुले हुए हैं। ऐसे में जनता को भी लगता है कि उनको स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा और रोजगार तो मिलना नहीं है जो भी मिल रहा है, उसे ही लपक लो। वास्‍तविकता तो यह है कि भारत के किसान में खुशहाली कर्जमाफी से नहीं आएगी, बल्कि यह खुशहाली उसकी उपज बढ्ने, उपज के लिए बाजार, उसका समुचित मूल्‍य और उनको विभिन्‍न सुविधाएं प्रदान करने से आएगी।

यक्ष प्रश्‍न यह है कि राजनैतिक दलों को सरकारी खजाने अथवा जनता की के पैसे को मुफ्त में लुटाने का अधिकार किसने दिया ? ऐसा करने से सरकारों का राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। आर्थिक संकट बढ़ने के चलते आम आदमी पर करों का बोझ बढ़ता जा रहा है जबकि राजनैतिक दल अपने राजनैतिक फायदे के लिए रेवडि़यां बांटने में मशगूल हैं। मेरा मानना है कि देश की जनता को मुफ्त की रेवडि़यां बांटने वाले राजनैतिक दलों से सावधान रहने की जरूरत है। जनता को स्विटजरलैंड के नागरिकों की तरह गंदी राजनीति करने वाले नेताओं को बता देना चाहिए कि हमें बेरोजगारी भत्‍ता नहीं बल्कि रोजगार चाहिए।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार है)

 

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