हमारे देश का भविष्य कहे जाने वाले किशोर लगातार हिंसक होते जा रहे हैं। इसे पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव कहें या बदला हुआ परिवेश जिसके कारण उनकी सहनशीलता लगभग समाप्त हो चुकी है। अपने बड़ों और शिक्षकों के प्रति सम्मान की भावना भी उनके अंदर समाप्त होती जा रही है। इसका प्रमुख कारण शायद संयुक्त परिवारों का विघटन, एकल परिवारों का प्रसार और बच्चों को सही शिक्षा और संस्कार न दे पाना है। पिछले कुछ महीनों में महज दिल्ली और एनसीआर में घटी किशोरों द्वारा की गई हिंसक वारदात ने समाज के हर वर्ग को यह चिंतन और मंथन करने के लिए बाध्य कर दिया है कि आखिर हमारे ये किशोर हिंसा की ओर क्यों अग्रसर हो रहे हैं और उनको अंधकार में जाने से कैसे रोका जा सकता है?
इस मुद्दे पर विचार करने के पूर्व पिछले कुछ महीनों में हुई हिंसक वारदात पर एक नजर डालना लाजमी होगा। पहली फरवरी 2018 को नई दिल्ली के करावल नगर में एक नौवीं के एक छात्र का शव स्कूल के बाथरूम में मिला था। उसकी हत्या के आरोप में तीन छात्रों को गिरफ्तार किया गया। दूसरी घटना में 21 जनवरी 2018 को यमुनानगर के एक स्कूल के 12 वीं कक्षा के एक छात्र ने अपनी खराब उपस्थिति से डांटे जाने के बाद नाराज होकर अपनी प्रिंसिपल रितु छाबड़ा की उसी के कार्यालय में घुसकर गोलीमार कर हत्या कर दी थी। इसी तरह से नोएडा में 4 दिसंबर 2017 को एक नाबालिग ने अपनी बहन और मां की हत्या कर दी थी। उसकी मां उसे पढ़ाई के लिए डांटती और पीटती थी। इस बात से वह क्षुब्ध था। नवंबर 2017 को मामूली झगड़ा होने के बाद पांच स्कूली नाबालिग छात्रों ने एक 17 वर्षीय बी काम के छात्र की दिल्ली में आश्रम के निकट बस में चाकू घोंप कर हत्या कर दी थी। वहीं गुड़गांव के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में 8 सितंबर को 7 साल के बच्चे प्रद्युम्न का मर्डर कर दिया गया था। 11वीं के एक छात्र को इस मर्डर केस में आरोपी बनाया गया।
नाबालिगों के बीच बढ़ती हुई हिंसक प्रवृत्ति अधिकाधिक उग्र होती जा रही है। यह नि:संदेह हमारे समाज के लिए बेहद चिंताजनक है। यह एक स्वस्थ समाज और राष्ट्र निर्माण में बहुत बड़ा अवरोधक है। अब छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़े होना, बोलचाल बंद होना, रूठना, भटकना, गाली-गलौज या मारपीट आम बात है। ये सिलसिला बहुत तेजी से आगे बढ़ चुका है। सड़कों पर रोड रेज की घटनाएं आम हो गई हैं। क्रोध के आवेश में आकर किशोर और युवा सीधे हत्या कर रहे हैं। मामूली बात पर आग बबूला होने वाले लोग अब प्राणघातक आक्रमण के बिना शांत नहीं होते।
पुलिस और न्यायालयों की रिपोर्ट भी यही कहती है कि यह परिदृश्य सिर्फ हमारे देश में नहीं है बल्कि संपूर्ण विश्व में हिंसा की आग तेजी से भड़क रही है और बहु सर्वभक्षी दावानल बनने की दिशा में बढ़ रही है। अब हिंसक घटनाएं इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि उन्हें आश्चर्यजनक एवं चिंताजनक न मानकर सामान्य मानव स्वभाव में गिना जाने लगा है। अपराध जितनी तेजी से बढ़ रहे हैं, उतनी प्रगति और किसी क्षेत्र में नहीं हो रही है। हम सबके लिए इस बात पर चिंतन और मंथन करने की आवश्यकता है कि आखिरकार हमारे देश का भविष्य माने जाने वाले किशोरों में दिनोंदिन इस तरह नाकारात्मक बदलाव क्यों आ रहा है? साथ ही हमें इस दिशा में विचार करना चाहिए कि हम अपनी किशोर एवं युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित होने से कैसे बचाएं?
विगत कुछ वर्षों में हमारे समाज में परिवारों की तस्वीर तेजी से बदली हैं। संयुक्त परिवारों का तानाबाना टूट चुका है। शहरों में न्यूक्लीयर परिवारों का चलन हो चुका है। ऐसे परिवारों में पिता को बच्चों से बात करने, उनके पास बैठने और पढ़ार्इ के बारे में पूछने की फुरसत नहीं है। बदली हुई परिस्थितियों में मां भी कामकाजी है और अगर वह ग्रहणी भी है तो उसे किटी पार्टियों, शापिंग घरेलू काम से फुर्सत नहीं है। हमारे शिक्षा के मंदिरों स्कूल और कॉलेजों में भी गुरुकुल की परंपराएं समाप्त हो चुकी हैं। वहां तस्वीर एकदम बदल चुकी है। शिक्षक को शिक्षा और छात्र से कोर्इ खास वास्ता नहीं है। अधिसंख्य शिक्षकों का नजरिया व्यावसायिक हो गया है। वहीं विद्यार्थियों के मन में भी शिक्षकों के लिए वैसा आदर सम्मान नहीं रहा । पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा का जिस तरह से व्यावसायीकरण हुआ है, शिक्षा भी आज व्यापार बन गई है।
एकल परिवार होने के चलते दादा-दादी ज्यादातर घरों में नहीं हैं । बच्चे अकेलेपन, सन्नाटे, घुटन और उपेक्षा के बीच बड़े होते हैं। बच्चे को ना तो अपने मिलते हैं और ना ही अपनापन। लेकिन उम्र के साथ बड़े होते बच्चों को जब प्यार और किसी के साथ, सहारे की जरूरत पड़ती है तब उसके पास मां-बाप, चाचा-चाची, दादा-दादी या भार्इ बहन नहीं होते। ऐसे में उनके पास होता है अकेलापन या फिर उनके साथ उल्टी-सीधी हरकते करने वाले घरेलू नौकर। बच्चे इंटरनेट सोशल साइटों के जरिये एक काल्पनिक संसार में विचरण करके भावनात्मक संबल खोजते हैं। उन्हें वहां भावनात्मक संबल तो नहीं मिलता, अपितु वे भटकाव की एक फिसलन भरी दुनिया में अवश्य पहुंच जाते हैं।
ऐसे में आज की युवा पीढी को टूटने से बचाने की जिम्मेदारी किसी एक की नहीं बल्कि समाज के बुद्धिजीवियों को मिलजुलकर प्रयास करने होंगे। उनको सही राह दिखाने के लिये जरूरी है कि समाज का हर वर्ग अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझे। हमें इस बात पर विचार करने का चाहिए कि हमारे बच्चे इतने संवेदनहीन और हिंसक क्यों होते जा रहे हैं? मामूली बात पर जान देने और लेने पर उतारू क्यों हो जाते हैं ? किशोरों की रगों में गरम लावा किसने भर दिया है? इन सवालों के जवाब किसी सेमीनार, पत्र-पत्रिकाओं या एनजीओ में खोजने की आवश्यकता नहीं है। बच्चों की समस्याओं का समाधान हमें उनको पास बैठाकर, उन्हें प्यार दुलार और समय देकर हासिल करना होगा। इसके अलावा हमारी सरकार को शिक्षा के व्यासायीकरण को रोकना होगा ताकि वहां पर संस्कारित बच्चे तैयार किए जा सकें। साथ ही इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि घर को बच्चे का पहला स्कूल कहा जाता है। परिवार की पहली पाठशाला परिवार में अगर अभिभावक बच्चों की अच्छी परवरिश करें। उनको पर्याप्त समय देकर उनकी दशा और दिशा ठीक करने पर ध्यान दें तो नि:संदेह हम अपने किशोरों को न केवल हिंसक होने से रोक सकेंगे बल्कि हम देश को सुसंस्कारित और संवेदनशील नागरिक दे सकेंगे और यही नागरिक हमारे राष्ट्र निर्माण में महती भूमिका निभा सकेंगे।
(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार है। )