गुरू पूर्णिमा का पर्व भव्य जगजननी दरबार में बड़े धूम-धाम से मनाया गया
NOIDA ROHIT SHARMA
DATE-01-08-2015
सर्वप्रथम भक्तों ने माँ भगवती की विधिविधान से पूजा अर्चना की तथा पं0 जय कुमार शर्मा (जल वाले गुरू जी को भक्तों ने श्रद्धासुमन भेंट करके पूजा अर्चना की तथा उनकी दीर्घायु के लिए हवन किया। गुरू पूर्णिमा का पर्व क्यों मनाया जाता है जल वाले गुरू जी ने इसकी व्याख्या बड़े मार्मिक ढंग से बताया की प्राचीन काल में देवताओं के मर्यादा विहीन होने के कारण असुरी शक्ति प्रबल हो गयी थी जिसके कारण असुरों ने स्वर्ग पर विजय प्राप्त की और देवताओं को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया तब देवता सुरपति देव इन्द्र के नेतृत्व में गुरू बृहस्पति के पास गये और उनकी पूजा अराधना की देवताओं की पूजा से प्रसन्न होकर देव गुरू ने उन्हें विजयभव का आर्शिवाद दिया। उनकी आज्ञा अनुसार माँ भगवती की अराधना की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर माँ भगवती ने असुरों को युद्ध में मारकर देवताओं को स्वर्ग की प्राप्ति करायी। तभी से अषाढ मास की पूर्णिमा को गुरूपर्व, गुरूपूनम, व्यास पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है। जल वाले गुरू जी ने बताया की गुरू पर्व गुरू शिष्य के मिलन का दिन होता है। समिक्षा करने का दिन होता है। गुरू और शिष्य के प्रेम का दिन होता है। गुरू से ज्ञान लेकर अपने जीवन को धन्य बनाने का दिन होता है। आज के दिन गुरू शिष्यों को अपने ज्ञान से बौद्ध कराते है जिससे मनुष्य का जीवन आन्नद मय हो सके। मनुष्य पूजा करता है, पाठ करता है, तीर्थ यात्रा में जाता है, दान करता है परन्तु उसको फल नहीं मिलता इसके लिए उन्होंने अपने 21 सूत्रों से बताया की किन कराणों से फल की प्राप्ति नहीं होती। सेवा में स्वार्थ, संकल्प का पूरा न होना, मन का भटकाव, अनियमितत्ता, मनमुखी होना, उदासीनता, कर्कश भाषा, संत गुरू अवज्ञा, गुरू संत अनादर, गुरू ईष्ट धर्म की उपेक्षा, कृतध्नता, गलतियों की पुनरार्विती विधिविहिन एवं त्रूटी पूर्ण अनुष्ठान, दान न करना, समय की प्रतिबदता न होना, नाम दोष, गुरू धर्म द्रोही से मित्रता, गुरू से छल-कपट और धोखा आदि करने से फल की प्राप्ति नहीं होती और कष्ट आता है। मंत्र जाप एवं पूजा में विधि के साथ-साथ आसन, दिशा, समय आदि का भी ध्यान रखना चाहिए। भूमि पर बैठ कर पूजा करने से कष्ट मिलता है, वस्त्र पर पूजा करने से दरिद्रता आति है, पत्थर पर रोगी होता है, लकड़ी पर बैठने से सब निष्फल हो जाता है। कुसा तथा कम्बल या ऊन से बना आसन ही सर्वश्रेष्ठ है। इस अवसर पर हजारों की संख्या में भक्तों ने भजन किर्तन एवं भण्डारे का आनंद हुठाया। तथा जल वाले गुरू जी ने अपने भजन से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। गुरू को निहारने का देखो ये वक्त आया।
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