मायावती के गृहजनपद से उनके इस्तीफे का वो सच जो बहनजी किसी को नहीं सुनाना चाहती!

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मायावती का इस्तीफा और इतना सन्नाटा क्यों है भाई?

यहां आप मायावती जी की फोटो तो पहचान गए होंगे। बाकी दो के बारे में मैं बताता हूं।

पहले फोटो में गौतमबुद्ध नगर के अट्टा फतेहपुर गांव के सुनील गौतम हैं। अगर दलित उत्थान की टीस देखनी है तो आठवीं पास सुनील गौतम से मिलिए। पिता जयपाल जाटव की अंगुली कब हाथ से छूटी और कब बसपा का झंडा हाथ में आ गया, यह सुनील को भी मालूम नहीं है। मायावती की फोटो वाली टीशर्ट में गांव-गांव नीले रैपर वाली टॉफियां बच्चों को बांटना उसकी पहचान बन गई थी। शादी हुई लेकिन कभी बीवी-बच्चों को बहनजी और बसपा से ऊपर नहीं माना।

इस मिशन के दौरान सुनील गौतम को विपक्ष के नेताओं-कार्यकर्ताओं और पुलिस ने कितनी बार पीटा, उसे खुद मालूम नहीं। गलियां सुनना तो उसके मिशन का रोजमर्रा का हिस्सा था। आज सुनील गौतम मायावती का सबसे बड़ा विरोधी है।

क्यों, सुनील कहता है कि 2007 में मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई, हम लोगों के लिए होली, दीवाली, 15 अगस्त और 26 जनवरी के त्यौहारों की खुशियां एकसाथ आ गई थीं। कुछ दिन बाद मेरे गांव के पास गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी की शुरुआत करने मायावती आईं। मुझे बसपा नेताओं ने कार्यक्रम में नहीं घुसने दिया। पीएसी के जवानों ने सड़क पर गिराकर पीटा। दरअसल, अब बसपा के नेता वही थे, जो सत्ता से पहले पार्टी का प्रचार करने पर हमें पीटते थे। मेरी कहीं सुनवाई नहीं हुई।

सुनील गौतम अपने हकों के लिए आज भी खुद संघर्ष कर रहा है। उसकी पट्टे की जमीन पर कब्जा है। त्रस्त सुनील और उसका पूरा परिवार 08 अक्टूबर 2015 को दनकौर में पुलिस से भिड़ गया। महिलाएं तक नग्न हो गईं। यह पूरे देश ने देखा। किसी ने इनकी समस्या तो नहीं सुनी महिलाओं, बच्चों और सुनील को जेल जरूर जाना पड़ा। सुनील का सवाल है कहां थी बहनजी। अब वह हमारे समाज के लिए नहीं, अपने खोए सिंहासन को तलाशने के लिए राज्यसभा से इस्तीफे का ढोंग कर रही हैं।

दूसरे फोटो में आपको युवक के सामने हाथ में एक व्यक्ति की पासपोर्ट फोटो दिख रही है। यह व्यक्ति कामबख्शपुर गांव के जगदीश जाटव हैं। अब दुनिया में नहीं हैं। 10 फरवरी 2016 को गांव में इनकी हत्या कर दी गई।

मेरे दफ्तर में जगदीश की ओर से सरकार को दी गईं कई दरख्वास्त रखी हैं। जो उसने मायावती, उनके सचिवों, कमिशनर और कलेक्टरों को दी थीं।

जगदीश की जमीन पर कब्जा था। इस बात को सारे अफसर अपनी रिपोर्ट में मानते थे। लेकिन जगदीश की जमीन किसी ने मुक्त नहीं करवाई।

जगदीश के बेटे का कहना है, भैया जो नेता पहले सपा, कांग्रेस और रालोद जैसी पार्टियों में सांसद-विधायक थे, वे बसपा की सरकार आई तो यहां बन गए। उनके ही रिश्तेदार हमारी जमीन घेरकर बैठे हैं। मजेदार बात ये कि वे नेता बसपा की सरकार जाती और सपा की सरकार आती देखकर उधर भाग गए। खड़े तो हम और मायावती रह गईं। बहनजी और पार्टी पर मरने के लिए तो दलित हैं।

ये दो घटनाएं उदाहरण भर हैं। मायावती के गृह जनपद ही नहीं पूरे उत्तर प्रदेश में तमाम ऐसे दलित और घटनाएं हैं।

दोनों घटनाओं की तारीख अखिलेश यादव सरकार की हैं। लेकिन इनके मूल में मायावती सरकार की अकर्मण्यता छिपी है। अगर उस समय धक्के खा रहे ऐसे दलितों को “उनकी सरकार” इंसाफ दे देती तो ये दिन ना देखने पड़ते।

अब सवाल यही खड़ा होता है कि क्या मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का नारा देकर दलितों की उपेक्षा की थी? कांशीराम की पार्टी क्या ठेकेदारों, दल बादलुओं और दलितों को प्रताड़ित करने वालों को नहीं सौंप दी थी? क्या इन हालातों में दलितों का संघ-भाजपा प्रेम नाजायज है? अब क्या मायावती अपने दलित समाज के लिए राज्यसभा छोड़ आई हैं?

सबसे बड़ा सवाल, क्या मायावती की इस “शहादत” पर दलित फिर शहीद होने को तैयार होगा? अगर हां तो इतना सन्नाटा क्यों है भाई?

 

 


(पंकज पाराशर के फेसबुक वॉल से साभार )
पंकज पराशर हिंदुस्तान टाइम्स में उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं। वरिष्ठ पत्रकार के रूप में पंकज पराशर को कई जाने माने पुरस्कारों से भी नवाजा जा चूका है। बहुमुखी प्रतिभा के धनि पंकज पत्रिकारिता के अलावा डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकिंग में भी गहरी रूचि रखते हैं एवम उनकी “द ब्रदरहुड ” नामका डाक्यूमेंट्री भी जल्द रिलीज़ होने वाली है। )
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