अक्षय तृतीया पर विशेष – सामाजिक सौहार्द्र की वृद्धि करता है अक्षय तृतीया महापर्व – डाॅ0 अलका अग्रवाल

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लेख/2 मई 2014 अक्षय तृतीया पर विशेष
सामाजिक सौहार्द्र की वृद्धि करता है अक्षय तृतीया महापर्व

सभी धार्मिक परम्पराओं में महापुरुषों के जीवन से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण प्रसंग पर्व के रूप में मनाए जाते हैं। इन पर्वों का कालातीत महत्व है जो हजारों साल से व्यक्ति को स्वयं के जीवन को उत्कर्षोन्मुख करने में प्रेरणास्त्रोत है और सामाजिक सौहार्द्र की भी वृद्धि करते हैं। बैशाख शुक्ल तृतीया जैन परम्परा में प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव के जीवन के संन्यास काल के एक अतिमहत्वपूर्ण प्रसंग से जुड़ी है। यह प्रसंग प्रति वर्ष वैशाख माह के द्वितीय पक्ष के तीसरे दिन अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। प्रचलित शब्द ’अखतीज’ भी है। इस वर्ष के दोनांे ही पहलू सामाजिक व धार्मिक – अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उसी समय से दान परम्परा की शुरुआत हुई।
प्रसंग इस प्रकार है। वृषभ देव ने अपने राज्यकाल में पूर्व व्यवस्थाएँ निष्प्रभावी होने से उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए कर्मभूमि की नवीन व्यवस्था के लिए असि भजी, कृषि, विया, वाणिज्य और शिल्प के छह कार्य करने को कहा। कृत युग की व्यवस्था को चलाने के लिए नियम निर्धारित किए। हर एक वर्ग के कार्य निश्चित किए, उनकी विवाह व्यवस्था मर्यादित की, न्याय दण्ड तथा राजनैतिक व्यवस्था स्थापित की। दीर्घकाल राज करने के उपरान्त ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य सौंपकर दीक्षा ग्रहण की। योग धारण किए जब छह महीने पूर्ण हुए तब आहार लेने नगर में भ्रमण किया। उन्हें न केवल अपने लिए आहार लेना था बल्कि निग्रंथ साधुओं की आहारचर्या और उन्हें गृहस्थों द्वारा आहार देने की विधि भी प्रशस्त करनी थी। वृषभदेव के मंतव्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य जिनसेन महापुराण (विंशपर्व) में कहते हैं-

’’मार्ग प्रबोधनार्थं च मुक्तेश्च सुखसिद्धये।
कायस्थित्यर्थमाहारं दर्शयामस्त तोऽधुना ।।4।।
न केवलमयं कायः कर्शनीयो मुमुक्षुभिः।
नाप्युत्कररसैः पोष्यो मृष्टैरिष्टैश्च वल्मेनेः।।5।।
वशे यथा स्युरक्षाणि नोत धावन्त्यनूत्पथम्।
तथा प्रयतितव्यं स्याद् वृत्ति माश्रित्यमध्यमाम्।।6।।
काय क्लेशो मतस्तावन्न संक्लेशोऽस्ति यावता।
संक्लेशे ह्यसमाधानं मार्गात् प्रच्युतिरेव च।।8।।

अर्थात्
मोक्ष का मार्ग बतलाने के लिए और मोक्ष की सिद्धि के लिए शरीर की स्थिति-अर्थ आहार लेने की विधि बताते हैं।।4।। मोक्षाभिलाषी मुनियों को यह शरीर न तो केवल कृश ही करना चाहिए और न रसीले तथा मधुर मनचाहे भोजनों से इसे पुष्ट ही करना चाहिए।।5।। किन्तु जिस प्रकार ये इन्द्रियाँ अपने वश में रहंे और कुमार्ग की ओर न दौड़ें उस प्रकार मध्यम वृत्ति का आश्रम (आहार) लेकर प्रयत्न करना चाहिए।।6।।
काय क्लेश उतना ही करना चाहिए जितने से संक्लेश न हो। क्योंकि संक्लेश हो जाने पर चित्त चंचल हो जाता है और मार्ग से भी च्युत होना पड़ता है।।8।।

मौन वृषभदेव ग्राम-गाम, नगर-नगर, खर्वट और खेटों में विहार करते रहे, किन्तु दिगम्बर मुनि की विधिवत् आहार ग्रहण करने की प्रक्रिया से अनभिज्ञ जन-सामान्य उन्हें तरह-तरह की भेंट देने का प्रयत्न करते, किन्तु प्रशांत मौन मुनि वृषभदेव आगे बढ़ जाते; भोजन – काल समाप्त होने पर वे वापस वन चले जाते। इस तरह छह महीने व्यतीत हो गये। योग धारण के एक वर्ष पूरा होने पर मुनि वृषभदेव हस्तिनापुर पहुँचे। वहाँ के राजा सोमप्रभ के अनुज राजा श्रेयांश को पूर्व रात्रि के स्वप्न में ससंयोग एवं आहार विधि का ज्ञान हुआ। अगले दिन प्रातःकाल विगत दिनों की भाँति मुनि वृषभदेव आहार के लिए नगर में निकले और ज्यों ही राजा श्रेयांश के महल के सामने पहुँचे, राजा श्रेयांश ने श्रद्धा भक्ति से आहार के लिए पड़गाहा (आमंत्रित किया), आमंत्रण को मौन स्वीकृति देते हुए महल में प्रवेश किया, राजा श्रेयांस ने सपरिवार मुनि वृषभदेव को ईख (गन्ना) के प्रासुक रस का आहार दिया। आचार्य जिनसेन उस सौभाग्यशाली क्षण के लिए कहते हैं –

’’श्रेयान् सोमप्रमेणामा लक्ष्मीमत्या च सादरम्।
रस मिक्षोरदात् प्रासुमुत्तानी कृत पाणये।।100।।
श्रद्धादि गुण सम्पन्नः पुण्येर्नवभिरन्वितः।
प्रादाभगवते दानं श्रेयान् दानादितीर्थकृत।।81।।
श्रद्धा शक्तिश्च विज्ञानं चाप्यलुब्धता।
क्षमा त्यागश्च सप्तैते प्रोक्ता ज्ञान पतेर्गुणा।।82।।

अर्थात्
तीनों लोकों के समस्त जीवों का हित करने हेतु मोक्षमार्ग का उपदेश देने वाले भगवान वृृषभदेव के लिये राजा श्रेयांश ने अपने अग्रज राजा सोमप्रभ व उनकी रानी लक्ष्मीमती के साथ ईख के प्रासुक रस का आहार दिया। दान के आदी तीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले राजा श्रेयांश ने श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अक्षुब्धता, क्षमा और त्याग सात गुणों के साथ उत्तम पात्र दान दिया।
आचार्य जिनसेन आगे कहते हैं –
’’तदादि तदुपतं तछानं जगति वपधे।
तो विस्मयमासेदुः भरताद्या नरेश्वरा।।123।।

यानी संसार में दान देने की प्रथा उसी समय से प्रचलित हुई और दान देने की विधि भी सबसे पहले राजकुमार श्रेयांश ने ही जान पायी थी। दान की इस विधि से सम्राट भरत आदि अन्य राजाओं को बड़ा आश्चर्य का विषय बना।

वह शुभ दिवस बैशाख शुक्ल तृतीया था जो प्रतिवर्ष अक्षय तृतीया के महापर्व के रूप में मनाया गया है। सहस्त्रों वर्ष पूर्व जननी पुनीत सर्वोत्कृष्ट दान परम्परा कालांतर में उबरोत्तर पल्लवित हो रही है। आज आहार दान के अतिरिक्त विद्यादान (ज्ञान का उपकरण दान), औषधिदान एवं आवासदान की सद्कृति विभिन्न माध्यमों से लोकहित कार्यों द्वारा वृद्धिमत हुई है। विशाल धार्मिक स्थान, उन्नत संस्कृति व मध्यकाल के साथ-साथ दान प्रवृत्ति के प्रेरणा स्तंभ हैं। लोकोत्तर आध्यात्मिक उत्कर्ष की दृष्टि के अलावा अभाव पीडि़त एवं वंचित प्रस्त प्राणियों की सहायता करना न्यायपूर्ण तथा विषमतामुक्त समाज के निमाण की दिशा में दान परम्परा सामाजिक दायित्व का अर्थपूर्ण निर्वाह भी है। पीड़ा व ईषर्या के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले अपराधों को रोकने में यह दान सद्वृत्ति सक्षम है। अक्षय तृतीया का महत्व हिन्दू धर्म में भी बहुत अधिक है। इस दिन जिनकी शादी होती है, उनका सौभाग्य अखंड रहता है। इस दिन महालक्ष्मी का विशेष अनुष्ठान करने से अक्षय पुण्य मिलता है। अक्षय तृतीया पर बिना पंचांग देखे कोई भी शुभ्ज्ञ कार्य करने के योग हैं। शादी, स्वर्ण खरीदने, नया सामान, गृह प्रवेश, पदभार ग्रहण, वाहन क्रय, भूमि पूजन व नया व्यापार शुरू करने के लिए अक्षय तृतीया काफी शुभकारी मानी जाती है। भविष्य पुराण के अनुसार अक्षय तृतीया के दिन सतयुग व त्रेतायुग की शुरुआत हुई थी। भगवान विष्णु के 24 अवतारों में भगवान परशुराम, नर-नारायण एवं हयग्रीव आदि तीन अवतार अक्ष्ज्ञय तृतीया पर ही धारण किए गए। तीर्थस्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी दिन खुलते हैं। वृंदावन में बांके बिहारी के चरण दर्शन भी इस दिन फलदायी माने जाते हैं। वर्ष में साढ़े तीन अक्षय मुहूर्त होते हैं, इनमें अक्षय तृतीया का प्रमुख स्थान माना गया है।

पर्व मनाने की सार्थकता तभी है जब हम सब अपनी-अपनी सामथ्र्यानुसार किसी न किसी रूप में इस पावन परम्परा को अपनाएं। निश्चित ही लोभ – स्वार्थ भावना के विसर्जन और त्याग संवेदनशीलता अर्जन से अपने को भी सुख आनंद मिलेगा और दूसरों को भी।

(डाॅ0 अलका अग्रवाल)
निदेशिका
मेवाड़ ग्रुप आॅफ इंस्टीट्यूशंस
वसुन्धरा, सेक्टर-4सी, गाजियाबाद

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