आधुनिक साइंस और वेदों का सम्बन्ध और रहस्य : एमरिट्स वैज्ञानिक, सांख्यिकी प्रो अजब सिंह आर्य द्वारा विस्तृत लेख !
Professor Ajab Singh Arya (Guest Author)
वेद संबंधित रहस्य
श्री हर्षवर्धन जी का, उपरोक्त दावे के उत्तर का कथन, मात्र सुना सुनाया है या कहिए जुमला है। मेरे विचार से वेदों के सूत्रों को समझने वाला आज विश्व में कोई नहीं है, अन्यथा वैज्ञानिक सितारों की खोज में आज ऐसे न भटकते।
हां मैं आपको कुछ उदाहरण और तर्क से उसकी सच्चाई के विषय में विश्वास दिला सकता हूं।
1. २५०० वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने बताया था कि प्रमाणुओं की प्रकंपन्न, एक चुटकी बजाने से कम समय में कई बार, शत सहस्त्र कोटि (१० घात १२) की संख्या में हो जाती हैं। आश्चर्यजनक रूप से यह संख्या वास्तविक संख्या (१० घात १३) के समतुल्य है।
उनकी क्या विधि रही होगी, कोन बता सकता है? और यह बात हमारी समझ से बाहर चली जाती है सिवाय यह मानने के कि उनको सृष्टि के सूक्ष्मतं रहस्यों का ज्ञान प्राप्त था।
2. स्वामी परमहंस योगानंद जी के गुरु स्वामी युक्तेश्वर जी ने, अपनी मृत्यु से कितने ही काल बात बंबई के होटल में परमहंस जी को अपने पहले ही हाड़-मांस के शरीर में दर्शन दिया और फिर अंतर्धान हो गए थे। एक ऐतिहासिक सत्य किन्तु अब इसको कोन सिद्ध करेगा?
स्वयं परमहंस जी का मृत शरीर क्ष्य न होने के कारण ज्यों का त्यों (वर्ष १९५२) में दफ़न किया गया था।
ऐसा ही महान योगी श्री अरविंद घोष के विषय में सुना है कि उनका मृत शरीर ११ दिन बाद क्ष्य हुआ था।
क्या यहां भी सबूत चाहिए?
3. श्रीमती शकुंतला देवी कंप्यूटर माइंडिड कही जाती हैं। यदि ये कंप्यूटर आविष्कार से पहले हुई होती तो शायद आज हम उनकी प्रतिभा पर भी शक करते?
यद्यपि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसे शक पर कोई आप्पति नहीं है)
4. मैंने वैदिक गणित के विश्लेषण से पाया कि इसके अधिकांश सूत्र आधुनिक गणित से डिराइव किये जा सकते हैं।
तो क्या वे लोग आधुनिक गणित से वाकिफ थे यदि नहीं , तो हम उनकी विधि को नहीं जान सकते, हां समझना दूसरी बात है, लेकिन सबूत तो दे ही नहीं सकते।
हम भारतीय वास्तव में अपनी पुरानी सांस्कृतिक धरोहर का केवल बखान करते नहीं थकते किन्तु उस पर अनुसंधान नहीं करते।
मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि यदि कोई उस दिशा में काम करे भी तो उसको कहीं से किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन मिलना प्राय असंभव है। बस यह सब से बड़ी विडंबना है।
टिप्पणि: अब अधिक जिज्ञासुओं के लिए
अंतिम में देखिए भगवान बुद्ध अंतरिक्ष की कैसी व्याख्या करते हैं?
Modern science established the law that energy can not be destroyed as only it can be changed into other forms e.g. as mass or heat etc. and other form vacuum energy and nature of this energy is negative pressure which prevents the universe to be collapsed .
भगवान बुद्ध और ब्रह्माण्ड
भगवान बुद्ध ने इस अनंत ब्रह्माण्ड को ६ धातुओं
१-अग्नि heat energy .
२-वायु air energy .
३-आपो liquid energy .
४-पृथ्वी mass energy .
५-आकाश अनंतायतन धातु vacuum infinite volume energy .
६- विञ्ञान अनंत आयतन धातु consciousness infinite volume energy .
से निर्मित बताया है ।
समस्त संसार जीव-अजीव केवल इन्ही छः धातुओं के संयोग का परिणाम है ।।
भगवान बुद्ध की समस्त शिक्षाओं में एक मुख्य सिद्धांत
“ये धम्मा हेतुप्पभवा (=प्रत्येक वस्तु एवं जीव और घटना के होने का कारण होता है । )”
जन्म और मृत्यु के संदर्भ में भगवान बुद्ध ने बड़े ही विस्तार से बताया है कि- वास्तव में ये दोनों घटनायें एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं । मृत्यु होती है तो जन्म होता है , जन्म होता है तो मृत्यु होती है यह एक कार्य-कारण के सिद्धांत की संज्ञा (=name) से जाना जाता है । इस कार्य-कारण के सिद्धांत को तथागत बुद्ध ने “ पटिच्चसमुप्पाद “ की संज्ञा दी है एवं बड़े ही विस्तार पूर्वक जन्म, जीवन ,दुःख, सुख, असुख-अदुख और मृत्यु एवं उसके बाद किस प्रकार इस वर्तमान जीवन के बाद पुनः क्या चीज़ कैसे पुनर्जन्म ग्रहण करती है ?
मृत्यु इस नामरूप (=जीवित शरीर ) की होती है तो इस नामरूप के कम्म (=efforts) जो बीज से वृक्ष की भाँती फल-फूलकर परिपक्वता को प्राप्त होकर नष्ट हो गए होते हैं परन्तु उसी नामरूप (=वृक्ष की भांति ) के वे कम्म (efforts) जो पारिपक्वता को प्राप्त न होकर संखार रूप (=बीज रूप memorised ) में रह गए और वे बचे संखार ( = बीज ) किसी अन्य भूमि (=resting place i.e. at solid place or water or air etc.) पर नए नामरूप (=जीवित शरीर =live body ) के प्रकार में उत्पन्न होते हैं , ठीक उसी प्रकार प्राणी (=नाम-रूप) जो-जो कम्म ( = efforts , works ) काया , वचन एवं मन से करता है वे सभी उसी नाम-रूप (=live body ) के भीतर संखार (= लकीर की तरह खिंच जाना )
{ =अदृश्य बीज जैसे कि आज के वैज्ञानिक युग में जब कोई विषय-वस्तु आदि को किसी यांत्रिक प्रकार में store करता है तो pan drive ,CD या cassettes आदि में बहुत सूक्ष्म किसी आँख आदि से न दिखने वाले संखार (=imprints =memories ) बन जाती हैं , फिर पुनः उन-उन संखारो (= memories ) को दूसरे किसी यंत्र(= instrument ) के द्वारा recieve कर हम उसके रूप-रंग-ध्वनि आदि को देखते हैं ।} में संचित होते जाते हैं उनमें कुछ संखार अपनी-अपनी ऋतु-भूमि के मिलने पर फलित होकर विपाक (=fruition =results=फल ) देते हैं और कुछ अपने-अपने प्रकार की ऋतु-भूमि के उपलब्ध न होने के कारण फलित नहीं होते ( = वृक्ष नहीं बनते तो फल भी नहीं लगते ) तो संखारों के प्रकार में संचित हो जाते हैं और नामरूप की मृत्यु के समय सभी संखार प्राणी के चित्त (=mind ) में उठ खड़े होते हैं और उस समय नामरूप में अवस्थित चित्त उन संखारों को देखता है तब जो ऐसे संखार जो अन्यों की अपेक्षा अधिक दृढ हैं (= e.g. पानी पर लक्कीर की तरह , रेत पर लकीर की तरह या फिर पत्थर पर लकीर की तरह ) होते हैं तो उन-उन दृढ़तम संखारों के प्रति इसी नामरूप के पूर्व काल में चित्त अत्यधिक तञ्हा (=तृष्णा=बार-बार पाने की इच्छा ) के कारण जो उपादान (=आसक्ति =attachment ) के कारण चित्त-धारा (=mind-continuum ) उक्त संखारों से बंध गयी रहती है तो इस नाम-रूप के विच्छिन्न (= अपने-अपने स्कंधों में बंट जाने = मृत्यु होने ) होने के समय यह संखारित-चित्त (=memorised mind ) नये विञ्ञान (= sense of infinite consciousness ) को उत्पन्न कर बुझ (=disappear हो ) जाता हैं अपने ८९ सूक्ष्म स्वरूपों में , अपनी मूल ६वीं अनंत-आयतन वाली विञ्ञान धातु में एवं चार महाभूतों से निर्मित यह रूप भी अपने-अपने महाभूतों में विच्छिन्न ( assimilation )हो जाता है ।
अतः यह पुराना नाम-रूप { नाम (=वेदना +संज्ञा+संखार+ विञ्ञान ) , रूप (= पृथ्वी+आपो+वायो+अग्नि ) } में विलीन हो जाता है । अतः जो नया विञ्ञान है वह बिल्कुल नए नाम-रूप को उत्पन्न करता है , उस पुराने नामरूप के संखारों की पूर्व की तृष्णाओं से उत्पन्न उपादान के कारण ही यह नया विञ्ञान नए रूपनाम को उत्पन्न करता है तो उन-उन पूर्व सन्खारों की तृष्णाओं से युक्त उपादान भूमियों (=लोकों ) में ही यह नया नामरूप (= नया जन्म ) उत्पन्न होता है अर्थात उन-उन पूर्व की तृष्णा युक्त उपादान के संखार अपने फूलने-फलने लायक भूमियों में ही जाकर स्थान ग्रहण करते हैं और जमकर नया नाम-रूप (=जीवित-शरीर ) उस भूमि (=लोक ) में दिखाई पड़ता है | इस प्रकार प्राणी स्वयं के किये गये कर्मों से संखार(=imprints = memories ) बनाता है और उनके प्रति तृष्णा-युक्त-उपादान से राग-द्वेष-मोह (=affection – hatred will – dollishness ) के कारण पुनः-पुनः विभिन्न भूमियों (= लोकों ) में विभिन्न प्रकार के नाम-रूप (=योनियों =प्राणियों के प्रकार ) में जन्म-जीवन-मरण ….. … . . प्राप्त करता रहता है ।
इस प्रकार यह सार्वभौमिक सनातन धम्म-ऋत का विधान (= Universal evergreen natural law ) संसार (= समस्त ब्रह्माण्ड ) के तीन प्रकार के लोकों (=भूमियों )—
१-काम लोक
२-रूप लोक
३-अरूप लोक
जो कि कुल ३१ प्रकार की भूमियों (=उपलोकों ) में विस्तृत हैं –
१-काम लोक (=Sensual world)
A- कामदुग्गति भूमि
i-निरय (=नरक योनियाँ )
ii-तिरच्चान योनि=तिर्यक योनियाँ (=सूक्ष्म जीव , पक्षी, पशु आदि )
iii-पेत लोक (=hungry ghosts)
iv-असुर (=demons )
B-कामसुग्गति भूमि
v-मनुस्स लोक (=human beings )
vi-चातुमहाराजिक सग्ग भूमि (=चातुमहाराजिक चार दिशाओं के चार महाराजाओं देवों एवं उनके सहायक देवगण )
vii-तावतिन्स सग्ग (=त्रयस्त्रिंश स्वर्ग ) लोक
viii-याम सग्ग
ix-तुसित सग्ग
x-निम्माणरति सग्ग
xi-परनिम्मितवसवत्ति (=परनिर्मित वशवर्ती ) सग्ग अर्थात मार अर्थात यमराज लोक
२-रूपलोक (Fine Material World ) which can not be percepted by five organ system .
xii-परिसज्ज ब्रह्मा
xiii-पुरोहित ब्रह्मा
xiv-महाब्रह्मा (=इनकी आज्ञा सहस्र कोटि चक्रवालों (=galaxies )में चलती है । सामान्यतः अन्य अध्यात्मिक मार्गों पर चलकर मनुष्य और सग्गी देव इन्ही महाब्रह्मा के लोक और अवस्था को सर्वोत्तम अवस्था मान लेते हैं और मोह के कारण महाब्रह्मा को ही समस्त संसार का रचियता मानकर , निर्विकारी ईश्वर मानकर ; इन महाब्रह्मा की स्तुति के सूत्रों के काव्यों की रचना करते हैं क्योंकि उनकी समाधि सम्यक समाधि नहीं होने के कारण केवल इसी ब्रह्म लोक तक समाधि पूर्ण हो जाकर समाप्त हो जाती है और इस प्रकार मिथ्या दृष्टि में फंस जाते हैं ।)
xv-परित्ताभ देव
xvi-अपप्माणाभ देव
xvii-आभासर देव
xviii-परित्तसुभ देव
xix-अप्पमाणसुभ देव
xx-सुभकिण्ण देव
xxi-वेहप्फल देव
xxii-असञ्ञ सत्ता
xxiii-अविह देव
xxiv-अतप्प देव
xxv-सुदस्स देव
xxvi-सुदस्सी देव
xxvii-अकनिट्ठ देव
३-अरूप लोक ( Immaterial World )
xxviii-आकासानञ्चायतनुपग देव
xxix-विञ्ञानञ्चायतनुपग देव
xxx-अकिञ्चञ्ञायतनुपग देव
xxxi-नेवसञ्ञानासञ्ञायतनुपग देव
में एकसमान प्रकार से क्रियान्वित रहता है । अतः कोई प्राणी अपने पूर्व जन्म अर्थात पुराने नामरूप से विभिन्न प्रकार के कर्म करता है ,उन कर्मों के कारण प्राणी के नामरूप के भीतर समाहित चित्त के भीतर उन-उन कर्मों के कारण उसी प्रकार के संखार (=imprints=memories ) संचित्त हो जाते हैं । यदि उस नामरूप द्वारा प्राणी (=मनुष्य या देव ) अपने तीन प्रकार के कर्मों ——- मानसिक,वाचिक,कायिक—–को उच्च -उन्नत शुद्ध करता है सम्मासमाधि द्वारा ,तो नया नामरूप किसी उच्च लोक —- ६ प्रकार के सग्ग(=स्वर्ग ) लोकों या १६ प्रकार के ब्रह्म लोकों या ४ प्रकार के अरूप ब्रह्म (=निराकार ब्रह्म ) लोकों में उत्पन्न हो सकता है ।यदि कर्म इस प्रकार के हों जो कुशल (=नैसर्गिक शुद्ध ) एवं अकुशल (= नैसर्गिक अशुद्ध ) का मिश्रण हों तो ; काम-लोक की सुग्गति भूमियों (= ६ देव लोकों ) में जन्म ग्रहण कर सकता है ।यदि प्राणी के कर्म-संखार अकुशल (=बुरे =कष्टदायक या कष्टलायक =कष्टपायक ) ही हों तो नया विञ्ञान उन बुरे कम्म-संखारों के कारण कामलोक की किसी दुग्गति भूमि (=नरक, तिर्यक,प्रेत्य,असुर ) में जन्म ग्रहण करता है । अतः मृत्यु के समय कृत-कर्मों के संखार-युक्त उग्गह-चित्त (=मनोधातु जो पूर्व कृत कर्मों के संखारों से नए विञ्ञान को उत्पन्न करती है =The memorized mind which creates the newer sense of consciousness ) ही सबसे महत्वपूर्ण तत्व है कि नए जन्म की अवस्था क्या ? और किस भूमि के लोक में नामरूप को धारण करेगी।
“ Thus a person whose predominant characteristics are the mental attitude of hate will atonce remenifest in a form of embodying hatred , as that is his death-proximate-kamm , induced by habitual past thoughts ‘’
जो आदतें चेतनामय (=memorised sense ) हो जाती हैं वे नामरूप की तञ्हा (=तृष्णा ) अर्थात बार-२ पाने या उसमें मजा लेने की इच्छा (=desires ) बन जाती हैं । अतः जो आदतें चेतनामय होकर किसी संखार (=memory ) को बना देती हैं न तो वे स्थूल प्रेम (=active love ) हैं और न ही स्थूल घ्रणा (=active hatred ) है ।यह तञ्हा और उपादान ही हैं जो जातक (=जीव=प्राणी ) के चित्त को उक्त-उक्त कृत कर्मों के संखारों से बांधकर संसार चक्र में (=बार-बार जन्म-मृत्यु –जन्म –मृत्यु …. ..अनंत काल तक या अर्हत होने तक ) बांधती हैं ।
अतः जातक (= individual ) में निहित संखार ; जो तञ्हा और उपादान के जड़त्व कारण हैं , उनके कारण ही सभी उद्देश्य और क्रियाकलाप जातक के नए जन्म में उत्पन्न होते हैं । उपादान-युक्त प्रेम (= sensual love ) वस्तु विशेष में तृष्णात्मक आसक्ति (=desired affection ) है और जब तृष्णा (=desire about sense ) बुरी विषय वस्तु के प्रति आसक्ति (=उपादान = sensual love ) उत्पन्न करती है तो वह घृणा (=hatred will ) कहलाती है । इस प्रकार इस काम-लोक में जातकों में मिश्रित कर्मों का स्वरुप देखने को मिलता है और इन मिश्रित कर्मों के प्रत्यावर्ती (=alternative ) स्वरुप (=नामरूप =beings ) आने वाले (=अनागत ) अर्थात भविष्य के जन्मों में इस काम-लोक में भोगते (=अनुभव=experiencing करते ) हैं । यह जो लोक जिसमें हम मनुष्य और नरक , तिर्यक , प्रेत्य , असुर और देवता आदि हैं यह काम-लोक है । ये काम लोक की वे भूमियाँ हैं जिसमें तञ्हा (=तृष्णा ) और उपादान (=sensual attachment ) का वर्चस्व है ।
भगवान बुद्ध ने जो सर्वोत्तम धम्म सिखाया और समझाया है , वह है अनत्तवाद (= no any unchancheable thing in the universe= i.e. no creator supreme god and no unchangeable survival soul ) का वास्तविक सच्च (=the truth ) , जिसका अर्थ है कि पृथ्वी पर भी,किसी भी प्राणी (=जातक=individual species ) में कोई नित्य (=persistant ) या निर्विकारी (=unchangeable ) सत्ता (=entity=आत्मा आदि ) नहीं होती है । सभी चीज़ें जीव-अजीव निरंतर परिवर्तन (=flux ) की स्थिति में हैं ; एक के बाद एक चित्त की वृत्तियाँ (=thoughts moments ) और रूप का निर्माण करने वाली चार धातुओं (=अग्नि, वायो,आपो,पृथ्वी ) के निर्माणकारी / उत्पन्न करने वाले अट्ठकलाप (=उतु-वण्ण ,वायो-गन्ध ,आपो-रस ,पृथ्वी-ओज =hotness-colour ,air-smell ,liquid-liquidity ,solid-solidness अर्थात प्रत्येक अट्ठकलाप i.e. fundamental unit of matter इन आठ को समाहित रखता है जिसकी प्रधानता जब ज्यादा होती है उसी के स्वरुप में प्रतीत होता है ) निरंतर उत्पन्न एवं मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं, केवल चित्त धारा और रूप धारा के उत्पन्न-नष्ट होने के समय में इतना अंतर है कि जितने काल में रूप एक बार उत्पन्न-नष्ट-उत्पन्न … .. होता है चित्त उतने काल में १७ बार उत्पन्न-नष्ट-उत्पन्न …हो जाता है ऋत के सार्वभौमिक नियम कार्य-कारण के सिद्धांत के अनुपालन में , जो कि सनातन (=unchangeable since unknown time ) है , प्राचीनतम है , इस सनातन ऋत के सिद्धांत को तथागत बुद्ध “ पटिच्च समुप्पाद “ कहते और समझाते हैं । जो कि हम चित्त विनय और अध्यात्मिक शुद्धता करते हैं, वह कोई व्यक्तित्व (=self =आत्म ) का सुधरना या बनना नहीं अपितु चित्त प्रवृत्ति (=tendency=आदत ) में बदलाव है । एक नवजात-शिशु में जन्म के समय से ही उसके पूर्वजन्म की प्रवृत्तियाँ (=tendencies ) मौजूद होती हैं और आने वाले नए जन्म के वो संखार (=बीज ) जो इस जीवन में उपयुक्त ऋतु-काल न मिलने से फलित नहीं होंगे और जो इस जीवन में कर्म किये जाते रहेंगे परन्तु उनका भी उचित ऋतु-काल न मिलने से फल (=resultant ) नहीं होगा या मृत्यु पर्यंत तक नहीं होता है वे संखार स्वरुप में इसी वर्तमान नामरूप में संचित्त (=memorised ) होते जाते हैं , इसी कारण वह नवजात-बच्चा बड़े होते गया (=नामरूप के निरंतर प्रवाह के कारण ) तो ५ वर्ष आयु वाला बालक वही (=personality = self=आत्म ) नवजात-शिशु नहीं है , ठीक इसी प्रकार किसी भी आयु पर वह जातक (=individual ) वही नवजात-शिशु नहीं किसी भी प्रकार से न तो चित्त और न रूप से ही क्योंकि नामरूप के प्रत्येक अव्यव { नाम (= वेदना+सञ्ञा+संखार+ विञ्ञान )+ रूप (=अग्नि,वायो,आपो,पृथ्वी चारों महाभूतों का आकाश अनंत आयतन धातु में संयोग ) } निरंतर कितनी ही अनगिनत बार उत्पाद-व्यय-उत्पाद …. … .. . होकर निरंतर नया नामरूप उत्पन्न कर रहे होते हैं जिसके कारण जातक नवजात-शिशु से बदल-बदलकर वृद्धि को प्राप्त करता जाता है परन्तु अट्ठकलाप की अग्नि धातु (उतुज कलापों से उत्पन्न = उतु-वर्ण ) जो रूप को जर्जरित भी करती चलती है अर्थात जलाती रहती है , इसी कारण जातक वृद्धि को प्राप्त करते-करते जीर्ण-क्षीर्ण (=वृद्ध ) हो जाता है । जब कोई किसी व्यक्ति / जातक को यह इंगित करता है कि ये वो व्यक्ति विशेष ( प्रज्ञापित नामरूप =named person ) है तो ऐसा हम परंपरा / प्रथा के कारण कहते रहते हैं जबकि उस नवजात-शिशु और ५ वर्षीय बालक एवं प्रौढ़ पुरुषावस्था या वृद्धावस्था के जातक में न तो रूप की ही समानता है और न नाम की ही समानता होती है । अतः केवल एक कार्य-कारण की सतत धारा है ; क्योंकि नवजात-शिशु था तो प्रौढ़ व्यक्ति है या होता है और यह सब जो व्यक्तित्व किसी अवस्था विशेष में दिखाई देता है , यह सब नामरूप में विभिन्न समयों पर – विभिन्न नामरूपों द्वारा किये कर्मों के कारण उत्पन्न होकर संचित्त (=वेदना, संज्ञा ,संखार , विञ्ञान ) हुए जिनके कारण जातक के ज्ञान-अभिव्यक्ति-चित्त वृत्तियाँ आदि सभी कुछ अलग-अलग अवस्थाओं में अलग-अलग होता है , सामान्य लोग इस नामरूप के तीक्ष्ण परिवर्तन को नहीं समझ पाते तो भ्रमवश यही मान लेते हैं कि केवल शरीर बढ़कर नष्ट हो गया , पर निर्विकारी तत्व ( self consciousness =निर्विकारी आत्मा ) तो कभी भी परिवर्तित नहीं होता सदा अजर-अमर (=undecayed-undying ) रहता है , पर वे ये नहीं जानते न समझ सकते कि जिसे वे निर्विकारी आत्मा आदि कह रहे हैं वे उस संचित्त (=वेदना, संज्ञा ,संखार , विञ्ञान ) को ही कह रहे होते हैं ।
this ऑल said एंड taught by भगवान बुद्ध ।।
ref:-
अंगुत्तर निकाय
मज्झिम निकाय
दीघ निकाय
पेत वत्थु
विमान वत्थु
अभिधम्मत्थ संगहो
विसुद्धि मग्ग ।।