नागेन्द्र प्रताप सिंह , आईएएस अधिकारी | जन कल्याण और विकास का प्रेरणादायी सफ़रनामा

ROHIT SHARMA / ABHISHEK SHARMA

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नोएडा :– भगवान बुद्ध और अंगुलिमार डाकू की कहानी कई लोगों ने सुनी होगी की कैसै एक खूँखार डाकू बुद्ध को मिलकर संत हो गया। कुछ ऐसा ही मिलता जुलता किस्सा अब देश के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी ने अपनी सूझबूझ के साथ दोहराया है। लेखक व पत्रकार सर्वेश मिश्रा ने गौतमबुद्धनगर के पूर्व जिलाधिकारी नागेंद्र प्रताप सिंह से उनके सफरनामे को लेकर ख़ास इंटरव्यू किया था, जिसके आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गई है।

जब शामली में भक्षक बावरिया बने रक्षक

एनपी सिंह ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में भय का पर्याय बन चुके बावरिया गिरोह को उसके गढ़ में रुककर ग़ैरकानूनी, हिंसक राहों को छोड़ प्रगति और शिक्षा के पथ पर बढ़ाया है। बावरियों का पेशा चोरी, लूट, डकैती, हत्या व खून खराबा जैसी वारदातों को अंजाम देना होता है, ऐसा लोगों को लगता है और यह काफी हद तक सच भी है। बावरिया आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने से पहले पूजा-पाठ करते है और अपराध के दौरान खून देखना शगुन समझते है,  लेकिन यह धारा एक आईएएस अधिकारी ने बदल कर रख दी जिसका नाम है “नागेंद्र प्रताप सिंह”। आज हम बात करेंगे एक ऐसे आईएएस अधिकारी की जिसने जात-पात, धर्म-मजहब, ऊँच-नीच से ऊपर उठकर कार्य किया।



इस आईएएस अधिकारी को ऐसे जिला का चार्ज मिला, जहाँ कानून व्यवस्था की धज्जियाँ उडी हुई थी। फिर भी उस व्यक्ति ने अपने दिमाग से सभी वर्गों के लिए काम किया , जिससे हर व्यक्ति अपना जीवन सुख और सम्मान के साथ व्यतीत कर सके ।

बात तब की है जब इन्हें चार्ज मिला उस क्षेत्र का जहाँ बावरिया का गढ़ था। जहाँ कानून का कोई खौफ नहीं था और ज्यादातर अवैध धंधे  होते थे, महिलाएं कच्ची शराब की भट्टियां चलाती थी।  बच्चे भी लूट करने में जरा भी हिचकाते नही रहते थे। ऐसी बिगड़ैल जनजाति को सही राह दिखाने का जिम्मा उठाया आईएएस अफसर नागेंद्र प्रताप सिंह ने। इस काम में चार साल जरूर लगे , लेकिन उनकी मेहनत रंग लाई।

बावरियों के गांव में बदलाव की नदी ऐसी बही कि महिलाओं ने अवैध शराब बनाने से तौबा कर ली। लोग बच्चों को स्कूल भेजने लगे। गावों की कुछ लड़कियां तो दिल्ली में आला तालीम भी हासिल कर रही हैं , वही दूसरी तरफ कुछ बच्चे आईएएस और आईपीएस की तैयारियां में लगे हुए है। एनपी सिंह को शामली दंगे के फौरन बाद जनवरी 2014 में डीएम बनाकर वहां भेजा गया।

दंगे में विस्थापित परिवार जहां शरण लिए थे, वहीं से कुछ दूरी पर बावरियों के 12 गांव थे। बावरियों के बारे में बहुत सुन रखा था इसलिए जिज्ञासावश एक रोज उनके गांव पहुंच गए। गांव में सन्नाटा पसरा था, घरों के दरवाजे बंद थे। दूसरे दिन एक और गांव में गए तो वहां प्रधान से बातचीत हुई और जानकारी जुटाई तो पता चला कि इस जनजाति के लोग पढ़ते नहीं हैं।

एनपी सिंह बताते है कि, ‘बावरियों से राब्ता कायम करने के लिए गांवों में खेल की गतिविधियां शुरू करवाईं। जिसको देख युवाओं ने खुलकर बात करनी शुरू की। कुछ लड़के-लड़कियों ने पढ़ने की इच्छा जताई। इसके बाद, गांवों में बंद हो चुके स्कूलों में अध्यापकों की तैनाती कर पढ़ाई शुरू करवाई गई।

जनवरी 2015 में एक सभा बुलाई, जिसमें 12 गांवों की महिलाएं शामिल हुईं। बैठक में उन्होंने शराब न बनाने का संकल्प लिया। महिलाओं की हालत सुधारने के लिए समूह स्थापित करवाए गए। इनके जरिए पशुपालन, सिलाई, कढ़ाई की ट्रेनिंग दिलवाकर काम शुरू करवाया गया।

वर्ष 2000 – नैनीताल की नैनी झील
आईएएस नागेंद्र प्रताप सिंह साझा करते हैं कि वर्ष 2000 में अपर जिला अधिकारी के रूप में उनकी तैनाती नैनीताल के कुमाऊं जिले में हुई। उस समय उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग करके एक दूसरा प्रदेश घोषित किया गया था। जब उन्होंने कुमाऊं जिले में अपर जिलाधिकारी का चार्ज संभाला, तो उन्होंने सबसे पहले जिले की परेशानियों के बारे में पता किया। उन्हें पता चला कि यहां की “नैनी झील” लगभग समाप्त होने की कगार पर है। एक समय जिस झील पर पर्यटको की भीड़ लगी रहती थी, आज वह लुप्त होने की कगार पर थी।

जब उन्होंने नैनी झील की दशा को ठीक करने की सोची और पीडब्ल्यूडी आयुक्त से खर्चे का आकलन कराया तो उन्होंने इसके लिए 33 करोड़ का खाका बना दिया। उस समय उत्तराखंड में नई सरकार बनी थी तो उनके पास इतने फंड नहीं थे कि वह जारी कर सकें। नागेंद्र प्रताप सिंह ने लोगों से अपील की लेकिन कोई आगे नहीं आया।

जिसके बाद स्वयं फावड़ा लेकर झील पर पहुंच गए और रोजाना सुबह 8 से 10 बजे तक 2 घंटे वहां फावड़े-टोकरी से काम करते थे। यह पहल देखकर वहां के उद्योगपति, बैंक और पूरा शहर साथ हुआ और यकीन मानिए कि बिना सरकार के एक रुपए खर्च कराए पूरी झील साफ हो गई और आज के समय में वह झील नैनीताल के गिने-चुने पर्यटन स्थलों में से एक बन चुकी है।

सब पढ़ें-सब बढ़ें
2015 में नागेंद्र प्रताप सिंह की गौतम बुध नगर में डीएम के तौर पर नियुक्ति हुई। उस समय पूरा जिला रियल स्टेट के आगोश में था। क्षेत्र का विकास बहुत तेजी से हो रहा था, यहां पर आसमान को छूती हुई इमारतें बन रही थी।  डीएम नागेंद्र प्रताप ने यहां भी जमीनी स्तर से सोचा और क्षेत्र की परेशानियों के बारे में पड़ताल शुरू कर दी।

 

उन्होंने देखा कि इन बड़ी-बड़ी इमारतों को बनाने वाले मजदूरों के बच्चे स्कूल नहीं जा रहे, बल्कि अपने मां-बाप के साथ ही मजदूरी में लगे हुए हैं। उन्होंने गौतम बुध नगर के बिल्डरों को इस बारे में  मोटिवेट किया। वहां के उद्योगपतियों, कंपनियों  एमएसडब्ल्यू यूनिवर्सिटी  के बच्चों से बातचीत कर सीएसआर के तहत 56 स्कूल खुलवाए गए। यहां बच्चों को मिड-डे-मील, बैग , किताब, ड्रेस उपलब्ध कराई गई और यकीन मानिए इन 56 स्कूलों में लगभग 40 हजार बच्चों ने शिक्षा ग्रहण की और कर रहे हैं।

न्याय चला जनता के द्वार
जब लखनऊ में जिला अधिकारी के तौर पर उनका तबादला हुआ तो उन्होंने वहां का हाल जाना तो उन्हें पता चला कि यहां 6500 ऐसे केस  है, जिनपर कोई सुनवाई नहीं हुई है। उन्होंने वहां पर लोगों के घर जाकर उनके केस सुलझाने शुरू किए। इस पहल को “न्याय चला जनता के द्वार” दिया गया। इस पहल में उनको लखनऊ बार एसोसिएशन का पूरा सहयोग मिला था। डीएम नागेंद्र प्रताप सिंह ने 3 महीने के अंदर 6500 हजार केस सुलझा दिए और जिनमें से करीब 90 फ़ीसदी लोग अब तक उस फैसले पर सहमत हैं। उन्होंने इस पर दोबारा से कोई याचिका भी नहीं डाली है।

आजमगढ़ में कब्रिस्तान और होलिका दहन स्थल से शुरू हुई यात्रा  हालांकि यह पहली बार नही था कि आईएएस सिंह ने कुछ ऐसा करके दिखाया हो। आईएस नागेंद्र प्रताप सिंह की पहली पोस्टिंग 1988 में आजमगढ़ में  एसडीएम के तौर पर हुई।  उस समय आजमगढ़ के वलीदपुर वीरा गांव में होलिका दहन स्थल और कब्रिस्तान को लेकर लोगों में आपसी विवाद चल रहा था गांव में पीएसी बल तैनात किया गया था । उस समय जब यह मामला बढ़ता दिखाई पड़ा तो वहां के नवनियुक्त एसडीएम नागेंद्र प्रताप सिंह ने इस मुद्दे को सुलझाने को लेकर चर्चा की।

उन्होंने इस मुद्दे को बड़े स्तर पर उठाया और गांव में जनप्रतिनिधियों, विद्वानों, नेताओं को बुलाकर एक अदालत बैठाई ,  पूरे दिन इस मुद्दे पर चर्चा हुई , लेकिन दोनों पक्ष किसी निर्णय पर राजी नहीं हुए।

दरअसल गांव वालों के बीच यह विवाद 1966 से चल रहा था। जब एसडीएम की वार्ता विफल हुई तो उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को समझाना शुरू किया और उन्होंने युवाओं को लक्ष्य बनाया जब भी लोग नहीं माने तो उन्होंने गांधी जी के रास्ते पर चलने का निश्चय किया और सत्याग्रह करने की ठानी।

सत्याग्रह शुरू होते ही वहां के लोगों में भाव पैदा हुआ कि जब बाहरी व्यक्ति गांव के लिए इतना कुछ कर रहा है, तो लोगों को भी उनका साथ देना चाहिए। जिसके बाद गांव वालों में वार्ता हुई और एक तरफ होलिका दहन व दूसरी तरफ कब्रिस्तान स्थल बना दिया गया और उन दोनों के बीच में से रास्ता भी निकाल दिया गया। 22 साल बाद उस गांव में बिना पीएसी बल के होलिका दहन की गई थी।

वक़्त का तकाज़ा है की अब फिर 31 साल बाद नागेंद्र प्रताप सिंह का आजमगढ़ में तबादला हो गया है लेकिन उनका ओहदा बदल गया है। अब वह आजमगढ़ के डीएम हैं।  नागेंद्र प्रताप सिंह के अब तक के सफर में उन्होंने न जाने कितनी बार तबादलों का सामना किया है। वह जहां भी गए , उन्होंने हमेशा लोगों की भावनाओं को समझ कर व उनकी जरूरतों के अनुसार प्रतिनिधित्व किया।

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