Delhi (27/01/2021) : देश के किसान लगभग दो महीनों से हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बीच दिल्ली बॉर्डर पर बैठे हुए हैं। कई लोगों ने किसान आंदोलन पर सवाल भी उठाए. आंदोलन को लेकर कई नेताओं के विवादित बयान भी सामने आए हैं. पाकिस्तान और खालिस्तान लिंक भी ढूंढा गया, लेकिन इस आंदोलन के कई सकारात्मक पहलू रहे. पहले जो किसान एक दूसरे से मतभेद रखते थे, वो भी एक मंच पर साथ आ गए हैं. ये एक बड़ी सफलता है. हालांकि, खालिस्तानी फंडिंग और पाकिस्तानी फंडिंग के नाम पर आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की गई है. लेकिन किसान डिगे नहीं.
परन्तु क्या सचमुच इतनी बड़ी संख्या में दिल्ली के बॉर्डर पर मौजूद ये भीड़ पूरी तरह किसानों की है? अगर हाँ तो कल लालकिले, आईटीओ पर हिंसा – अराजकता फ़ैलाने वाले भी क्या किसान थे?
क़रीब 60 दिनों से चल रहे धरने के दौरान किसानों ने इस आंदोलन के नाम पर किसी भी राजनैतिक और धार्मिक संस्थाओं को भी लाभ नहीं लेने दिया. जो बेहद सराहनीय है और आंदोलनों के इतिहास में यह बेहद कम ही देखा जाता है. परन्तु कल दिल्ली की सड़कों पर जो अराजकता फैली उसका ज़िम्मेदार कौन?
गणतंत्र दिवस के पर कृषि कानून के खिलाफ कई दिनों से आंदोलन कर रहे किसान दिल्ली में लाल किले तक पहुंच गए. तमाम कोशिशों के बावजूद दिल्ली पुलिस किसानों को लाल किले तक ट्रैक्टर लाने में नहीं रोक पाई. किसानों ने वहां पर जाकर अपना झंडा फहरा दिया जहां पर 15 अगस्त को प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं.
दिल्ली पुलिस ने शर्तों के साथ ट्रैक्टर रैली को इजाजत दी थी, लेकिन मंगलवार सुबह से ही दिल्ली के अलग-अलग सीमाओं पर किसान घुस आए. उसके बाद दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों से पुलिस के साथ झड़प, जबरन बैरिकेड टूटने की तस्वीरें सामने आती रहीं।
गाजीपुर सीमा पर किसान और पुलिस के बीच झड़प हुई. किसानों ने बैरिकेडिंग तोड़ने की कोशिश की. पुलिस ने किसानों को रोकने के लिए क्रेन को भी बैरिकेडिंग बनाया था. पुलिस की ओर से आंसू गैस के गोले छोड़े गए ।
पर सरकार के साथ बातचीत की विफलता और ट्रैक्टर रैली की इस आराजकता के बाद अब आगे क्या? इस आन्दोलन की अब दशा और दिशा क्या होगी? और कैसे मुमकिन होगा अब इसका अंत?
क्या सरकार उपद्रवियों को असली किसानों से अलग कर के देख पाएगी? क्या कोई बातचीत मुमकिन होगी?
कई लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि यह आन्दोलन असल किसानों का तो रहा ही नहीं बल्कि सिर्फ आढ़तियों औऱ उन बड़े धन्नासेठों का है जो अपना कई बीघा खेत पट्टे पर उठा देते हैं। वरना क्या किसानों के लिए दो महीनें अपना खेत छोड़ यूँ सड़कों पर बैठना मुमकिन होता?
बरहाल यह आंदोलन अब क्या मोड़ लेता है ये तो कहना मुश्किल है पर गणतंत्र दिवस पर हुई हिंसा से अब इन आंदोलनकारियों ने देश की आम जनता का विश्वास तो जरूर खो दिया है।