अमेरिका में बवाल- शुभ्रता पर कालिख

Ten News Network

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प्रोफ़ेसर पी.के.आर्य

 

पिछले कुछ दिनों से दुनिया का सरपञ्च अमेरिका बवाल की ज़द में है। ‘आप मियां फ़ज़ीहत दूसरों को नसीहत’वाली कहावत अमेरिका पर चरितार्थ होती जा रही है। विकसित देशों का सिरमौर महाशक्ति के रूप में स्थापित अमेरिका की प्रतिष्ठा और शक्ति -सामर्थ्य धीरे-धीरे क्षरित होती प्रतीत हो रही है। प्रथम नागरिक के घर का नाम ‘व्हाइट हाउस’ रख लेने भर से सभी कुछ शुभ्र और उज्जवल नहीं हो जाता। इस शुभ्रता के अस्तित्त्व की अपनी दरकार होती है। अदूरदर्शिता और निर्णय के बीच हिचकोलों ने इस शुभ्रता पर कालिख फेंक दी हैं।

दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति को अपने ही लोगों से बचने के लिए अपने ही घर के बने बंकर में सभी बत्तियां बुझाकर घोर अंधकार में सपरिवार छुपना पड़े , ये परिस्थितियों की भयावहता को दर्शाता है। अमेरिकी सुरक्षा व्यवस्था में इस तरह की सुरक्षा को सिर्फ उस समय प्रयोग किये जाने का विधान है, जब अन्य सभी सुरक्षा विकल्प प्रायः निर्मूल हो चुके हों। आतंकवाद की चरम परिस्थिति या विश्वयुद्ध की स्थिति में इस तरह से जान बचाने के उपाय संरक्षित रखे जाते हैं। अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया में किसी भी राष्ट्र प्रमुख द्वारा अपने ही नागरिकों से जान बचाने के लिए इस तरह की शरण लेना अपने आप में पहली घटना है। इससे एक संकेत स्वतः ही स्पष्ट होता है कि आप कितने ही ताकतवर क्यों न हों अगर आपके अपने ही आपको पसंद नहीं करते ,तो ये सारी चमक दमक खोखली है।

कोविड 19 के चलते अमेरिका पहले ही काफी फ़ज़ीहत झेल रहा था ऊपर से ये कोढ़ में खाज वाली स्थिति आ खड़ी हुई। ट्रम्प अपने कार्यकाल के शुरू से ही बहुत से मामलों में उलझे रहे हैं। उनके अनेक संवाद और निर्णयों से गैर गौरे पहले ही से खफा चल रहे हैं , ऐसे में गत 25 मई की रात 42 साल के एक काले अमेरिकी जॉर्ज फ़्लॉइड की पुलिस पकड़ में जान जाने से मामला नियंत्रण से बाहर हो गया। कुल पचास स्टेट में से 40 में भड़की हिंसा गहरे असंतोष और अस्वीकृति की परिचायक है। इस साल नवम्बर में राष्ट्रपति के लिए चुनाव होगा उसमें आप ट्रम्प का पत्ता साफ समझिये ! नस्लवाद की घटना अमेरिकी इतिहास में कोई नयी बात नहीं है। अमेरिका और यूरोप कितना भी आधुनिक और लीडर ऑफ़ द फ्री वर्ल्ड होने के दम भरते रहें वहां से वास्ता रखने वाले सभी व्यक्तियों को यह तथ्य पूरी तरह से सपष्ट है कि नस्लवाद आज भी इन राष्ट्र समूहों की नस नस में भरा है।

इस भेदभाव के शिकार सबसे पहले वहां के मूल निवासी हैं। जो लगभग जंगलों में रहकर अभिशप्त जीवन जीने को विवश हैं। उन्हें कोई विशेष अधिकार नहीं दिए गए हैं। उन्हें सभ्य विश्व के सामने अपने मुंह बंद रखने के लिए बाक़ायदा एक मासिक भत्ते के रूप में एक निश्चित रकम प्रदान की जाती है। इन्हें ‘रेड इंडियन’ कहा जाता है। उनमें से अनेक को आज भी वोटिंग अधिकार नहीं है। असल में स्पेन की रानी इसाबेला के सौजन्य से 14 वीं शताब्दी के अंत में क्रिस्टोफर कोलम्बस जब वैश्विकसभ्यता को खोजने के अभियान पर निकला तो उसका लक्ष्य भारत था। लेकिन समुद्री भटकाव के कारण उसकी जहाज़ आज के अमेरिका के बंदरगाह पर जा लगा। उस समय का अमेरिका मछुवारों और जंगली जीवन जीने वाले कुछ कबीलों की बस्ती थी। उसे बताया गया था कि गाँव -गरीबी और गर्द – गुबार से भरे देश का नाम भारत है। ये सभी लक्षण उसे अमेरिका में दिखाई दिए। अपनी प्राथमिक सूचनाओं में कोलम्बस ने जब अमेरिका को इंडिया बताया और वहां के रहने वाले लोगों को इंडियन तो रानी को विश्वास नहीं हुआ। इसाबेला बहुत विलासी और महत्वाकांक्षी रानी थी उसने यहाँ चोल वंशी राजाओं द्वारा बनवाये गए खजुराहो के मंदिर और उड़ीसा के कोणार्क मंदिर के बारे में पूछा तो कोलम्बस बगले झाँकने लगा। यूरोपियन साहित्यकारों द्वारा तब तक भारतीय उपनिषद और गीता के अनुवाद फ्रेंच फ़ारसी और डच में प्रारम्भ हो चुके थे। रानी की विशेष रूचि श्री कृष्ण के बारे में भी थी ;इस बाबत कोलंबस के पास कोई सूचना थी ही नहीं। रानी ने कोलम्बस से कहा तुम जिसे भारत बता रहे हो , वह उस भारत से कोई मेल ही नहीं खाता ! जिसकी हमने गाथाएं सुनी हैं ? इस तरह से कोलम्बस को फिर से भेजा गया और वह भारत पहुंचा।

यहाँ के लोग सांवले रंग के थे और अमेरिकी मूल निवासी लाल रंग के चेहरे वाले अतः कोलम्बस ने हमें इंडियन और अमेरिकी मूल के लोगो को रेड इंडियन लिखा जो आज भी चल रहा है। आज इन रेड इंडियन की संख्या अमेरिका की कुल आबादी का लगभग दो प्रतिशत ही बची है।

दुनियावी पटल पर असल में अमेरिका एक ऐसी चौपाल है जो अनेक राष्ट्रों के लोगों ने मिलकर विकसित की है। पूरी दुनिया में जो भी श्रेष्ठ और सर्वोच्च है उस प्रतिभा को अमेरिका अपनी कीमत पर खरीदता रहा है।सभ्य समाज के लिए निर्धारित उच्च मानदंडों की दुहाई और एक निष्पक्ष वातावरण का ढिंढोरा जिस तरह से पीटा गया , स्वाभाविक रूप से उसका दुनिया के मेधावी व्यक्तियों पर प्रभाव पड़ा। दुनिया भर से प्रतिभावान लोग पिछले छह सात दशकों में अमेरिका की और खिंचे चले आये। इनमें जो लोग ब्रिटेन और यूरोपीय देशों से आये वो स्वयं को कुछ खास होने का दंभ सदैव पाले रहे, जो परोक्ष रूप से आज भी जीवंत बना हुआ है। 1776 में अमेरिका ब्रिटेन के पंजे से मुक्त हुआ और यहाँ लोकतंत्र की स्थापना हुई। गोरे काले के बीच का भेद सदैव पश्चिमी देशों का एक अदृश्य संस्कार रहा, जो कभी भी समाप्त नहीं हुआ। गोरे काले ही नहीं अन्य धर्म और देशों के संस्कारों के आधार पर भी सदा कईं तरह के मापदंड अपनाये जाते रहे।

1861 में जब अब्राहम लिंकन अमेरिका के 16 वें राष्ट्रपति के रूप में चुने गए, तो उन्हें भी बहुत बार भेदभाव और पक्षपात का शिकार होना पड़ा। रिपब्लिकन पार्टी से आने वाले वे पहले नेता थे। चयनित होने के बाद जब लिंकन अमेरिकी संसद में बोलने के लिए खड़े हुए, तो उन्हें नीचा दिखाने के लिए एक सदस्य ने फब्ती कसी कि तुम्हारे पिता का काम कैसा चल रहा है ? असल में लिंकन के पिता थॉमस एक गरीब मोची थे। फुटपाथ पर उनका जूतों का एक छोटा सा खोखा था। लिंकन समझ गए कि उनके चमार होने का उपहास उडाया जा रहा है। लिंकन ने शालीनतापूर्वक जवाब दिया ‘मेरे पिता के सिले हुए जूतों की क्वालिटी से तो तुम वाकिफ हो ही , जितने अच्छे मोची मेरे पिता हैं और कुशलता से कार्य करते हैं, मैं उतना ही अच्छा राष्ट्रपति सिद्ध होने की कोशिश करूँगा !’ उनके इस उत्तर से पूरी सीनेट अवाक् रह गयी। अमेरिकी इतिहास के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रपतियों में लिंकन का शुमार किया जाता है। जब वे 56 वर्ष के थे, तब एक हिंसक समूह के सरगने ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी।

1918 से पहले तक अरब के तेल का न तो दुनिया को पता था और न ही ज़रूरत। तिजारती दिमाग से चलने वाले अमेरिकी लोगों ने अरब के लोगों के साथ अपनत्त्व का प्रचार किया। अपने यहाँ भारी तादाद में अफ़्रीकी और अन्य देशों के लोगों को पनाह दी। अफ़्रीकी मूल के लोगों में अधिकांश मुस्लिम तबके से हैं। आज अश्वेत अमेरिकियों की संख्या अमेरिका की कुल आबादी 33 करोड़ का लगभग 12 फीसदी है। एशिया खासकर भारत ,पाकिस्तान और चीन और अफगान आदि से वहां प्रवासी नागरिकों की संख्या लगभग 10 प्रतिशत है। रंगभेद के शिकार सभी जब भी मौका मिलता है एक हो लेते हैं। अश्वेत लोगों में अनन्य नर्तक माइकल जैक्सन भी रंगभेद से बचे न रह सके। उन्होंने स्वयं को गोरा दिखाने के लिए अपनी त्वचा की बीस से भी अधिक बार सर्जरी कराई। अंततः गौरों के बीच गौरा दिखने की एक काले कलाकार की ज़िद ही उसकी असमय मृत्यु का सामान सिद्ध हुई।

60 के दशक में आम आदमी के अधिकारों को लेकर एक युवा अमेरिका की राजनीती के क्षितिज पर उभरता है – मार्टिन लूथर किंग जूनियर। 28 अगस्त 1963 को लिंकन स्मारक पर एक जनसभा में उन्हें सुनने के लिए करीब दो लाख लोग इकट्ठा हुए थे। उनके ही प्रयासों से गौरों और कालों को एक समान नागरिक अधिकार दिए जा सके पहले इसमें भेद था। अपनी लोकप्रियता और प्रयासों के चलते 1964 में नोबेल पाने वाले किंग सबसे कम उम्र के व्यक्ति थे। बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका से एक सन्देश समूचे विश्व को गया था कि शायद रंगभेद की बातें अब बीते कल की बातें हो जाएँ लेकिन ताज़ा घटनाओं ने इन सब उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। 20 डॉलर से सिगरेट खरीदने वाले एक अफ़्रीकी मूल के अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लायड के नोट के नकली होने की आशंका में जिस तरह गरदन पर गोरे पुलिसकर्मी ने 9 मिनट तक अपना घुटना दबाये रखा ,जिससे उसकी मृत्यु हुई , उसके स्थान पर अगर कोई गौरा होता तब भी क्या इस पुलिसकर्मी की यही हरकत होती ? शायद नहीं ?

ब्रिटेन ने अपने औपनिवेशिक काल में पूरी दुनिया में वो सब किया जो किसी भी पैमाने पर उचित नहीं ठहराया जा सकता। सबसे लूटपाट के बाद जब सभी देशों में प्रायः लोकतंत्र आबाद हो गया, तो पुराने मालिक अपने सामान को पहचानकर, कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा करने लगें , इस विचार के भय से आक्रांत पश्चिम ने पूरी दुनिया को एक हव्वा थमा दिया जिसका नाम रखा -मानवाधिकार ! अमेरिका को अगुवा करके वामपंथियों मतलब उलटे लोगों द्वारा इसका खूब ढिंढोरा भी पीटा गया। धन बल के आधार पर हाथी हुए देशों के ये दांत खाने के अलग और दिखाने के अलग हैं। विदेशी प्रलोभनों और सुविधाओं पर पलने और अपने विचारों को नियत दिशा में पेलने वाले कुछ ऐसे ही उलटे लोगों ने कल से सोशल मीडिया पर एक नयी बकवास को हवा देनी शुरू की है, कि भारत में भी ऐसे ही उग्र फसाद करने की ज़रूरत है। फरवरी में ट्रम्प के भारत दौरों के दौरान वे दिल्ली को सुलगाकर अपनी हरकत जगजाहिर कर भी चुके हैं।

कोरोना वायरस से जूझ रही समूची वैश्विक सभ्यता अभूतपूर्व मानसिक और आर्थिक दबाव में है। अमेरिका की तर्ज़ पर दुनिया से सुलटने की तैयारी में घर में लगी दीमक को मत भूल जाना। ये न राष्ट्र के सगे हैं न प्रान्त के न स्वयं के ! गुलामियत के शिकार ये उलटे लोग सुलटती हुई व्यवस्था को देख भौच्चक हैं।

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