एक किस्सा नायाब— विप्लवी विजयसिंह ‘पथिक’ -मथुरा में गुमनामी रहे

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विजय सिंह ‘पथिक’ विस्मृति के गर्त में दबा हुआ वह नाम है, जिससे राजस्थान के राजा-महाराज भय और आतंक से काँप उठते थे। महात्मा गांधी ने विजय सिंह ‘पथिक’ की राष्ट्रभक्ति और बहादुरी के किस्से सुने तो उन्होंने सी0एफ0 एण्डूज से कहा-‘‘मैं आपको पथिक की बाबत कुछ बता सकता हूँ…….। सब लोग बातें बनाने वाले हैं। पथिक सैनिक हैं, वीर हैं, जोशीले हैं पर साथ ही कुछ जिद्दी भी हैं।’
बहुत कम लोग जान सके कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रशंसा-पात्र रहे पथिक जी ने  मथुरा के जनरल गंज इलाके में बहुत दिनों रहे    , एकदम  साधारण ।  विजय सिंह पथिक बुलन्दशहर के गुठावली गांव में मार्च सन् 1882 में जन्में थे। इनके दादा श्री इन्द्रसिंह गूजर ने 1857 की लड़ाई में जमकर भाग लिया था।  सन् 1906 में वे  क्रांतिकारी शचीन्द्र सान्याल के सम्पर्क में आये और इनके माध्यम से इनका का परिचय रासबिहारी बोस से हुआ। रासबिहारी बोस भूपसिंह के व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। इन्हीं दिनों श्री अरविन्द के छोटे भाई वारीन्द्र के नेतृत्व में  ने बम बनाने की कला सीखी . पकड़े जाने पर सजा हुई।
23 दिसम्बर 1912 को दिल्ली के चाँदनी चौक में लार्ड हाॅर्डिंग की सवारी पर जिन क्रान्तिकारियों द्वारा बम फेंका गया था उनमें पथिक  भी शामिल थे। तमाम क्रांतिकारी गतिविधयों में शरीक पथिक भेष बदल कर जंगलों में भटके . इसी समय उन्हें मालूम पड़ा कि ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के लिए पन्द्रह हजार रूपये का इनाम घोषित किया है।
मेवाड़ में एक जगह है बिजौलिया। यहाँ के किसान जमींदार के अत्याचारों से बेहद दुःखी थे। कई बार किसानों ने आन्दोलन भी किये लेकिन नेतृत्व के अभाव में दबा दिये गए थे। बिजौलिया के उत्साही नौजवान विजय सिंह पथिक से मिले और जमींदार द्वारा किय बेजा रहे शोषण उत्पीड़न से छुटकारा दिलाने की बात कही। पथिकजी किसानों का साथ देने का बीड़ा उठाकर बिजौलिया रवाना हो गए।
श्री पथिक के नेतृत्व में बिजौलिया आन्दोलन लम्बे समय के बाद  सफल हुआ.,पथिकजी ने अशिक्षित ग्रामीणेां के आन्दोलन में नए प्राण फूंक दिये। किसानों से विभिन्न प्रकार के कर वसूले जाते थे, बेगार का बोलबाला था। जमींदार की इच्छा ही कानून थी और उन अलिखित कानूनों की उपेक्षा या अवहेलना करने वाले को अकल्पनीय यंत्रणाओं का सामना करना पड़ता था। पथिकजी शीघ्र ही अपने निराले व्यक्तित्व व अनोखी कार्यशैली से किसानों के विश्वासपात्र बन गये। पथिक जी की एक आवाज से हजारों किसान एकत्रित हो जाते थे, सभाएं होती थीं और उनमें पथिकजी का जोशीला भाषण जादू का सा कार्य करता था। परिणामस्वरूप किसानों ने लगान देना बंद कर दिया। जमीन को बिना जोते रखा और शादी-विवाह बंद कर देने पड़े। खेती न होने से सम्पूर्ण इलाके को भयंकर आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि पथिकजी के कहने मात्र से 6 वर्ष तक किसानों ने अकथनीय कष्टों का निर्भीकतापूर्वक सामना किया, तब कहीं जाकर जमींदारों  को किसानों के सामने घुटने-टेकने पड़े।
बिजौलिया सत्याग्रह की कहानी सुनकर महात्मा गांधी ने श्री महादेव भाई देसाई को बिजौलिया भेजा। गांधीजी ने पथिकजी को कहलवा भेजा-‘‘अगर मेवाड़ सरकार ने अपने प्रजाजनों को शीघ्र ही न्याय नहीं दिया, तो मैं स्वयं आकर बिजौलिया के आन्देलन का नेतृत्व करूँगा।’’  गांधीजी ने  अपने  दैनिक पत्र ”‘नवजीवन’” में बिजौलिया के सत्याग्रह के संबंध में एक सम्पादकीय लेख भी लिखा।
पथिक जी की निडरता के सम्बन्ध में एक मजेदार घटना है। बीहड़ों में भटकते हुए एक बार पथिक जी का सामना एक शेर से हो गया। उन्होंने रायफल की गोली से शेर को मार गिराया और थके होने के कारण शेर के शव का तकिया बनाकर सो गये। संयोगवश एक पुलिस अधिकारी तीन सिपाहियों के साथ उधर से आ निकला। पथिकजी को शेर का सिरहाना लगाये बेधड़क सोते देखकर वह भयभीत हो गया और चुपचाप खिसक लिया। इस घटना के बाद पथिकजी के बारे में यह बात फैल गई कि पथिकजी सिध्द  पुरूष हैं। वह पुलिस अधिकारी जिसने शेर के ऊपर पथिक जी को सोते हुए देखा था, एक दिन मौका देखकर पथिकजी से एकांत में मिला और तंत्र – मंत्र सिखाने की याचना करने लगा। पथिकजी हँस पड़े और उसे टाल दिया।
बिजौलिया आन्दोलन में अमर शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी ने अपने अखबार ‘प्रताप’ के माध्यम से पथिक जी का साथ दिया। ‘प्रताप’ ने आन्दोलन के समाचार देश भर में पहुंचाने का कार्य किया। गणेशशंकर विद्यार्थी पथिकजी की संगठन शक्ति से अत्यधिक प्रभावित थे और अपने अग्रलेखों में इसकी वे चर्चा भी करते रहते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि लोकमान्य तिलक भी पथिकजी से प्रभावित हुए बिना न रहे।
पथिकजी जब बैजू में किसान-आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे, मेवाड़ में गिरफ्तार कर लिये गए। महाराज की विशेष अदालत ने पांच वर्ष की सजा दी। सन् 1930 के सत्याग्रह आन्दोलन में भी उन्हें जेल जाना पड़ा।
एक सैनिक के रूप में कार्य करते रहने के अतिरिक्त पथिकजी को लिखने-पढ़ने का बेहद शौक था। उन्होंने समय समय पर कई पत्रों का सम्पादन भी किया। पहले अजमेर और बाद में आगरा में ‘राजस्थान संदेश’ साप्ताहिक पत्र निकाला। श्री जमनालाल बजाज के सहयोग से ‘राजस्थान केसरी’ पत्र का सम्पादन उस समय किया जब देशी नरेशों के  खिलाफ  प्रकाशित समाचारों को पढ़ने तक से लोग डरते थे।
आजादी के बाद पथिकजी जैसे स्वतन्त्रता सेनानी के लिए आवास और भोजन की समस्या बराबर बनी रही। वे मथुरा केवल इसलिये आकर बस गये क्योंकि यहाँ खाने-पीने की चीजें अजमेर की अपेक्षा सस्ती थी। मथुरा के जनरलगंज इलाके में एक मकान अथक परिश्रम से खड़ा किया, तब कहीं रहने की समस्या सुलझ सकी। इस मकान की चिनाई अर्थाभाव के कारण पथिक जी ने अपने हाथों से की थी।
28 मई 1954 को पथिकजी का मथुरा में निधन हुआ । उनकी पत्नी श्रीमती जानकी देवी ने अपने क्रांतिकारी पति की स्मृति-रक्षा के लिये  जनरलगंज में  ‘विजय सिंह पथिक पुस्तकालय’ की स्थापना की लेकिन  धीरे धीरे यह पुस्तकालय बन्द हो गया.
यह पुस्तकालय  मथुरा का राजकीय इण्टर काॅलेज पथिक जी के मकान से 30 फुट दूर था लेकिन इस काॅलेज के किसी शिक्षक ने अपने छात्रों को पथिक जी के दर्शन करने की प्रेरणा कभी नहीं दी। इन शिक्षकों ने पथिक जी का नाम भी नहीं सुना था।
अंधेरे में उजियारा करने वाले पथिक जी मथुरा में जितने वक्त रहे, गुमनामी में रहे।
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