केसरी लाला लाजपत राय के श्रद्वांजलि दिवस पर सभा का आयोजन सेक्टर-10
नोएडा पंजाबी समाज व बुद्विजीवी वर्ग ने रविवार दिनांक 17-11-2013 को दोपहर 2 बजे पंजाब
केसरी लाला लाजपत राय के श्रद्वांजलि दिवस पर सभा का आयोजन सेक्टर-10 में किया। सभा के मुख्य अतिथि पंजाबी
उत्थान मंच के अध्यक्ष श्री दीपक विग थे। प्रमुख उद्योगपति ओपी मुंजाल ने दीप प्रज्जवलित कर कार्यक्रम की
शुरूआत की। श्री एडी कालरा, महासचिव आरडब्ल्यूए सेक्टर-72 व आरडब्ल्यूए अध्यक्ष श्री मुकेश भंडारी
ने माल्र्यापण कर लाला लाजपत राय को नमन किया। कार्यक्रम का संयोजन व संचालन श्री गौरव जग्गी, कोषाध्यक्ष
सेक्टर-72 आरडब्ल्यूए ने किया।
सभा को संबोध्ति करते हुए दीपक विग ने कहा कि लालाजी का जन्म 28 जनवरी, 1865 को अपने ननिहाल के गाँव
ढुंढिके (जिला फरीदकोट, पंजाब) में हुआ था। उनके पिता लाला राधाकृष्ण लुधियाना जिले के जगराँव
कस्बे के पंजाबी अग्रवाल वैश्य थे। लाजपतराय की शिक्षा पाँचवें वर्ष में आरम्भ हुई। 1880 में
उन्होंने कलकत्ता तथा पंजाब विश्वविद्यायल से एंट्रेंस की परीक्षा एक वर्ष में पास की और आगे पढ़ने के
लिए लाहौर आये। यहाँ वे गर्वमेंट कालेज में प्रविष्ट हुए और 1982 में एफ० ए० की परीक्षा तथा मुख्यारी
की परीक्षा साथ-साथ पास की। यहीं वे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और उसके सदस्य बन गये। डी०ए०वी०
कालेज लाहौर के प्रथम प्राचार्य लाला हंसराज भल्ला (आगे चलकर महात्मा हंसराज के नाम से प्रसिद्ध) तथा प्रसिद्ध
वैदिक विद्वान् पं गुरूदत्त सहपाठी थे, जिनके साथ उन्हें आगे चलकर आर्यसमाज का कार्य करना पड़ा।
इनके द्वारा ही उन्हें महर्षि दयानन्द के विचारों का परिचय मिला। 30 अक्टूबर, 1883 को जब अजमेर में
ऋषि दयानन्द का देहान्त हो गया तो 9 नवम्बर, 1883 को लाहौर आर्यसमाज की ओर एक शोकसभा का
आयोजन किया गया। इस सभा के अन्त में यह निश्चित हुआ कि स्वामी जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की
स्थापना की जाये जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृति तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी और
पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। 1886 में जब इस शिक्षण की स्थापना
हुई तो आर्यसमाज के अन्य नेताओं के साथ लाला लाजपतराय का भी इसके संचालन में
महत्त्वपूर्ण योगदान रहा तथा वे कालान्तर में डी०ए०वी० कालेज, लाहौर के महान स्तम्भ बने। 1888 में वे
प्रथम बार कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए जिनकी अध्यक्षता मि० जार्ज यूल ने की थी।
1906 में वे प० गोपालकृष्ण गोखले के साथ कांग्रेस के एक शिष्टमण्डल के सदस्य के रूप में इंग्लैड
गये। यहाँ से वे अमेरिका चले गये। उन्होंने कई बार विदेश यात्राएँ की और वहाँ रहकर पश्चिमी देशों
के समक्ष भारत की राजनैतिक परिस्थिति की वास्तविकता से वहां के लोगों को परिचित कराया तथा उन्हें स्वाध्
ाीनता आन्दोलन की जानकारी दी। लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियों-लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल के
साथ मिलकर कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। 1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस
वर्षो तक कांग्रेस ने एक राजभवन संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण वर्ष में एक बार बड़े
दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होने और विनम्रता पूर्वक शासनों के सूत्रधारों
(अंग्रेजी) से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिकाधिक संख्या में प्रविष्ट युगराज के
भारत-आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डटकर विरोध किया। 1907 में जब
पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा
सरदार अजीतसिंह (शहीद भगतसिंह के चाचा) पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को
देश से निर्वासित कर उन्हें पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर में नजरबंद कर दिया, किन्तु देशवासियों द्वारा
सरकार के इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा। लालाजी
केवल राजनैतिक नेता और कार्यकर्ता ही नहीं थे। उन्होंने जन सेवा का भी सच्चा पाठ पढ़ा था। प्रथम
विश्वयुद्ध (1914-18) के दौरान वे एक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप में पुनः इंग्लैंड गये और देश
की आजादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे जापान होते हुए अमेरिका चले गये और स्वाध्
ाीनता-प्रेमी अमेरिकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पथ प्रबलता से प्रस्तुत किया। यहाँ इण्डियन
होम रूल लीग की स्थापना की तथा कुछ ग्रन्थ भी लिखे। 20 फरवरी, 1920 को जब वे स्वदेश लौटे
तो अमृतसर में जलियावाला बाग काण्ड हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला में
जल रहा था। इसी बीच महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस
संघर्ष में जुट गये। 1920 में ही वे कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष
बने। इसी समय लालाजी को कारावास का दण्ड मिला, किन्तु खराब स्वास्थ्य के कारण वे जल्दी ही रिहा कर दिये गये।
1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और केन्द्रीय धारा
सभा (सेंटल असेम्बली) के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पं० मोतीलाल नेहरू से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर
मतभेद हो गया तो उन्होंने नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया और पुनः असेम्बली में पहुँच गये। अन्य
विचारशील नेताओं की भाँति लालाजी भी कांग्रेस में दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाली मुस्लिम तुष्टीकरण की
नीति से अप्रसन्नता अनुभव करते थे, इसलिए स्वामी श्रद्धानन्द तथा पं० मदनमोहन मालवीय के सहयोग से उन्होंने
हिन्दू महासभा के कार्य को आगे बढ़ाया। 1925 में उन्हें हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन का
अध्यक्ष भी बनाया गया। 1928 में जब अंग्रेजों द्वारा नियुक्त साइमन भारत आया तो देश के नेताओं ने
उसका बहिस्कार करने का निर्णय लिया। 30 अक्टूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुँचा तो जनता के प्रबल
प्रतिशोध को देखते हुए सरकार ने धारा 144 लगा दी। लालाजी के नेतृत्व में नगर के हजारों लोग कमीशन के
सदस्यों को काले झण्डे दिखाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचे और ‘साइमन वापस जाओ’ के नारों से आकाश गुँजा
दिया। इस पर पुलिस को लाठीचार्ज का आदेश मिला। उसी समय अंग्रेज सार्जेंट साण्डर्स ने लालाजी की छाती पर लाठी
का प्रहार किया जिससे उन्हें सख्त चोट पहुँची। उसी सायं घायल अवस्था के बावजूद लाहौर की एक विशाल जनसभा
में एकत्रित कर जनता का मनोबल नहीं टूटने दिया। उन्होंने जनसभा को सम्बोधित करते हुए नरकेसरी
लालाजी ने गर्जना करते हुए कहा-मेरे शरीर पर पडी़ लाठी की प्रत्येक चोट अंग्रेजी साम्राज्य के कफन की
कील का काम करेगी। इस दारुण प्रहात से आहत लालाजी ने अठारह दिन तक विषम ज्वर पीड़ा भोगकर 17 नवम्बर
1928 को परलोक के लिए प्रस्थान किया।
इस सभा में संजीव पुरी, नीतेश भंडारी, मोनी मुंजाल, एसपी आनन्द, रवि पोपली, अशोक लांबा, राजेंद्र
चैधरी, योगेंद्र यादव, दिनेश यादव, दीपक बेरी, जीडी फुल, संजीव फुल, राजीव जोशी व गणमान्य
व्यक्तियों ने श्रद्वासूमन अर्पित किये।