अनिल निगम
आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल की सरकारों द्वारा सीबीआई को अपने-अपने
राज्यों में छापा मारने व जांच करने के लिए दी गई रजामंदी वापस लेने का
प्रमुख कारण कहीं दोनों राज्यों में चल रहे भ्रष्टाचारों को छिपाने की कवायद तो
नहीं है। हालांकि जिस तरह से सीबीआई में शीर्ष अधिकारियों के बीच घमासान
मचा हुआ है, उससे सीबीआई की प्रतिष्ठा पर सवालिया निशान लगना
स्वाभाविक है। लेकिन सिर्फ इसे आधार बनाकर सीबीआई से दूरी बनाने का
फैसला भारतीय संविधान के संघीय ढांचे को कमजोर करने का प्रयास नजर आता
है।
इस मुद्दे पर भाजपा और विपक्षी दलों द्वारा आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जोरों
पर चल रहा है। दोनों राज्यों के फैसलों पर विपक्ष ने आरोप लगाया कि केंद्र में
भाजपा सरकार द्वारा केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के चलते राज्य सरकारों का
उनसे विश्वास समाप्त हो रहा है, वहीं भाजपा ने इस तरह के आरोप को
बेबुनियाद बताया है। भाजपा का कहना है कि राज्य सरकारों की मंशा भ्रष्टाचार
और आपराधिक कृत्यों में संलिप्त लोगों को बचाने की है। मुख्य विपक्षी
वाईएसआर कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश सरकार पर आरोप लगाया कि विवादित फैसला
सिर्फ इसलिए किया गया है क्योंकि मुख्यमंत्री सीबीआई से डरे हुए हैं। आंध्र प्रदेश
में वाईएसआरसी की राजनीतिक मामलों की समिति के सदस्य अंबाती रामबाबू ने
कहा कि चंद्रबाबू नायडू को स्पष्टीकरण देना चाहिए कि वह सीबीआई को राज्य में
आने से क्यों रोक रहे हैं।
ध्यातव्य है कि सीबीआर्इ की स्थापना दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टैबलिशमेंट एक्ट,
1967 के तहत की गर्इ है। इस एक्ट के सेक्शन दो के तहत सीबीआर्इ का
कार्यक्षेत्र दिल्ली एवं केंद्र शासित प्रदेशों तक ही सीमित है। इसके अलावा कहीं भी
जांच के लिए संबंधित राज्य की अनुमति की जरूरत होती है। पश्चिम बंगाल में
वर्ष 1989 में तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने सामान्य रजामंदी देने वाला
सरकारी आदेश जारी किया था, वहीं आंध्र सरकार ने इसी वर्ष 3 अगस्त को
भ्रष्टाचार रोकथाम कानून समेत विभिन्न कानूनों के तहत अपराधों की जांच को
केंद्र सरकार, केंद्र सरकार के उपक्रम के अधिकारियों और अन्य व्यक्तियों के
खिलाफ जांच के लिए आंध्र प्रदेश में शक्तियों और क्षेत्राधिकार के इस्तेमाल के
लिए दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान के सभी सदस्यों को रजामंदी देने वाला आदेश
पारित किया था।
हालांकि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और पश्चिम बंगाल की
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने पुराने फैसले को पलटने के बारे में कहा है कि
केंद्र सरकार सीबीआई का इस्तेमाल अपने राजनैतिक एजेंडा को पूरा करने के
लिए कर रही है, इसलिए यह रजामंदी को प्रदेश सरकारें वापस ले रही हैं। लेकिन
दोनों प्रदेशों के मुखिया के इस तरह के आरोपों की पड़ताल करना भी आवश्यक
है। इसमें ध्यान देने की बात यह है कि चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी मार्च
2018 तक केंद्र की एनडीए सरकार का हिस्सा थी। जब तक वह इसका हिस्सा
रहे, उस समय तक सीबीआई का दुर्पयोग उनको कभी नजर नहीं आया और ना ही
उन्होंने कभी उसकी भूमिका पर सवालिया निशान लगाया। लेकिन एनडीए से
अलग होते ही उन्होंने इस एजेंसी के दुर्पयोग का राग अलापना शुरू कर दिया।
हाल ही में आयकर विभाग ने विभिन्न भ्रष्टाचार के मामलों में जिस तरीके से
आंध्र प्रदेश में छापेमारी की है, उससे उनको यह भय सताने लगा है कि सीबीआई
की तिरछी नजर कहीं उन पर और उनके करीबियों पर न पड़ जाए। इसी प्रकार
पश्चिम बंगाल के चिटफंड घोटाले की सीबीआई जांच में जिस तरह से चिटफंड
घोटाले में त्रणमूल कांग्रेस के नेताओं की संलिप्ता पाई गई, उसके कारण
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के होश पहले से फाख्ता हैं। इन दोनों नेताओं को सबसे
बड़ा डर यह सताने लगा है कि उनके प्रदेशों में कहीं सीबीआई भ्रष्टाचार का कोई
नया बही खाता न खोल दे। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे संविधान का
ढांचा संघीय है।
इसके अलावा उक्त निर्णयों के पीछे दोनों प्रदेशों के राजनैतिक निहितार्थ भी छिपे
हुए हैं। 2019 का लोकसभा चुनाव निकट है। दोनों ही नेताओं ने भाजपा को केंद्र
सरकार से चलता कर देने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है। चंद्रबाबू नायडू
और ममता ने भाजपा के खिलाफ विपक्ष महागठबंधन बनाने की कवायद छेड़ रखी
है। उनको इस बात का भय सता रहा है कि ऐसे समय में अगर सीबीआई उनके
प्रदेश में भ्रष्टाचार का कोई नया मामला खोल देती है तो उससे उनकी राजनैतिक
महत्वाकांक्षा को धक्का लग सकता है। सीबीआई एक ऐसी जांच एजेंसी है, जो
संपूर्ण देश में होने वाले भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों की निष्पक्ष जांच के
लिए गठित की गई थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उसकी भूमिका और कार्य
प्रणाली पर सवाल उठाए जाते रहे हैं। ऐसे में इसके लिए यह भी आवश्यक है कि
सत्ताधारी दल और विपक्षी दल परस्पर एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की जगह
इस पर चिंतन और मंथन कर यह निष्कर्ष निकालें कि सीबीआई को किस तरीके
से बेदाग बनाया जा सके।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)
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