अच्छे दिनों में कहाँ और क्यों गायब हैं अच्छे सवाल ?

आशीष केडिया
 आज हम लोकतंत्र के एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जहाँ अभिव्यक्ति की आजादी दिन-प्रतिदिन संकीर्ण होती जा रही है। ऐसा नहीं है की सवाल नहीं पूछे जा रहे।  किन्तु वो सवाल नहीं हो रहे जो इस भ्रम पर सवाल उठा सकें। विकास की नदियाँ जमीन से ज़्यादा अख़बारों में बह रही हैं। आप और हम भी टीवी के सामने बैठे-बैठे देश में एक अभूतपूर्व  बदलाव का अनुभव कर ही रहे हैं।

हाँ, ये बात सही हो सकती है की पहले के मुकाबले ज्यादा अच्छा काम हो रहा हो। पर क्या इसका ये मतलब है की जहाँ खामियां हैं उन पर सवाल न उठायें जायें ? बेरोजगारी के आँकड़ों पर बात क्यों न हो ? किसान आत्महत्या जैसे संजीदा मुद्दे का मज़ाक उड़ाना क्या सिर्फ इसलिए ठीक है की 45-50 दिन अनशन  के बाद तीन किसान नॉएडा में किसी पत्रकार के बहकावे में आ कर फोटो-शूट करा आए? कम होती जीडीपी की बात को आज प्रधानमंत्री की निजी आलोचना क्यों माना जाता है?

इसी साल मार्च में जारी हुई ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में भारत को एशिया-पैसिफिक के 16 देशों में सबसे ज्यादा व्यापक घूसख़ोरी के लिए प्रथम स्थान मिला था। क्या अगर सबसे ऊपर के स्तर पर भ्रस्टाचार कम भी हो गया हो तो हम नीचले स्तर पर अभी भी बरक़रार इस व्यापक समस्या पर सवाल नहीं उठा सकते? आम आदमी तो वैसे भी कभी मंत्रालय में सीधे जा कर घूंस तो नहीं देता था न?

हमे समझना होगा की सवाल न पूछने से हम सबका लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। अच्छे-प्रभावी और चुटीले अंदाज में विपक्षी को टीवी डिबेट्स में धो देने वाले आपके प्रिय पार्टी के प्रवक्ता कभी आपकी रोड, नाली और बिजली वाली समस्या पर न बोलेंगे और न सुलझाएंगे ये बात समझनी होगी.

एक लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपना नेता चुनने का पूर्ण अधिकार है. पर आप अपना नेता चुनिए तो उसे सही गलत के पैमानों पर तौलना मत बंद करिये. ये मत भूलिए की आलोचना और आलोचक भी लोकतंत्र के सुचारु स्वरुप के लिए अत्यंत आवश्यक बिंदु है।
आज अचानक से सरकार से किये जाने वाले हर विचलित कर देने वाले सवाल का सीधा जवाब पूछने वाले को बिकाऊ बता देना होता है। क्या इसके पहले की सरकारों के पास खरीदने के लिए पैसे नहीं थे ? या आपको सच में लगता है की अचानक से सभी पत्रकार पिछले दो सालों में टैग पहन कर किसी ऑक्शन में बैठ गए थे?
अगर सब कुछ इतनी ही आसानी से बिकाऊ था तो तब क्यों किसी ने नहीं खरीदा ? क्या पहले जो  पत्रकार कॉमन वेल्थ, 2 जी, जैसे घोटाले खोल रहे थे वो भी बीके हुए थे? अगर नहीं तो क्या वजह रही होगी की हजारों करोणों के घोटालेबाज भी इन खबरों को बाहर आने से नहीं रोक पाए ?
इन घोटालों के बाहर आने की वजह थे आप और हम। वजह थी इस देश की जनता जो खबर देने वालों से सवाल करने की बजाए ऐसे कृत्य करने वालों से जवाब मांगना चाहती थी।
आज इस दौर में जब हर महापुरुष के नाम पर वोट मांगे जाते हैं, राजनीति होती है, क्यों नहीं कोई कबीर के दिखाए रास्ते पर चल कर राजनीति करने की बात करता है. कबीर को मलिन बस्तियों तक मत सिमित रखिये, सिर्फ स्वच्छ आंदोलन का मोहरा मत बनाइये, कबीर के पास बहुत कुछ है देने  को। कबीर दर्शन पढ़िए, समझिये और जीवन में उतारिये।

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय

     बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय|

गीता, कुरान , बाइबिल से लेकर उपनिषदों तक पर जंग करने वाले लोग अगर सिर्फ इन दो पंक्तियों का सार सही-सही समझ जायें तो काफी होगा।
बाकी आप भी सवाल उठाते रहिये और जवाब ढूंढ़ते रहिये क्यूंकि ये देश गुड़गान करने वालों ने नहीं डट कर विरोध करने वाले लोगों ने यहाँ तक पहुँचाया है।

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