अच्छे दिनों में कहाँ और क्यों गायब हैं अच्छे सवाल ?
हाँ, ये बात सही हो सकती है की पहले के मुकाबले ज्यादा अच्छा काम हो रहा हो। पर क्या इसका ये मतलब है की जहाँ खामियां हैं उन पर सवाल न उठायें जायें ? बेरोजगारी के आँकड़ों पर बात क्यों न हो ? किसान आत्महत्या जैसे संजीदा मुद्दे का मज़ाक उड़ाना क्या सिर्फ इसलिए ठीक है की 45-50 दिन अनशन के बाद तीन किसान नॉएडा में किसी पत्रकार के बहकावे में आ कर फोटो-शूट करा आए? कम होती जीडीपी की बात को आज प्रधानमंत्री की निजी आलोचना क्यों माना जाता है?
इसी साल मार्च में जारी हुई ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में भारत को एशिया-पैसिफिक के 16 देशों में सबसे ज्यादा व्यापक घूसख़ोरी के लिए प्रथम स्थान मिला था। क्या अगर सबसे ऊपर के स्तर पर भ्रस्टाचार कम भी हो गया हो तो हम नीचले स्तर पर अभी भी बरक़रार इस व्यापक समस्या पर सवाल नहीं उठा सकते? आम आदमी तो वैसे भी कभी मंत्रालय में सीधे जा कर घूंस तो नहीं देता था न?
हमे समझना होगा की सवाल न पूछने से हम सबका लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। अच्छे-प्रभावी और चुटीले अंदाज में विपक्षी को टीवी डिबेट्स में धो देने वाले आपके प्रिय पार्टी के प्रवक्ता कभी आपकी रोड, नाली और बिजली वाली समस्या पर न बोलेंगे और न सुलझाएंगे ये बात समझनी होगी.
इन घोटालों के बाहर आने की वजह थे आप और हम। वजह थी इस देश की जनता जो खबर देने वालों से सवाल करने की बजाए ऐसे कृत्य करने वालों से जवाब मांगना चाहती थी।
निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय|