कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की मांग लेकर किसानों का दिल्ली में प्रदर्शन जारी है और विभिन्न राज्यों के किसानों ने दिल्ली की अनेकों सीमाओं पर डेरा डाला हुआ है।
इन सब के बीच यह समझना जरूरी है की क्या सिर्फ कृषि कानूनों की वजह से किसान नाराज हैं? और 25 दिनों से ज्यादा वक्त से किसानों और सरकार के बीच चल रही इस खींचातानी के बीच अगर समझौते की बात आती है तो कैसे बात बन सकती है?
टेन न्यूज़ के प्लेटफार्म पर डॉ रविंद्र कुमार तिवतीया के साथ परिचर्चा के दौरान पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री ने इन विषयों पर गहरा प्रकाश डाला और कृषि, सिंचाई, दाम, निर्यात जैसे विषयों पर ज्ञानवर्धन किया।
पहले प्रश्न पर इस बात का जवाब देते हुए की किसान और सरकार इस बिल पर आमने सामने क्यों हैं और इस बिल में ऐसा क्या है, सोमपाल शास्त्री ने कहा, “इस बिल का एक विधेयक कृषि मंडियों के मूल ढाँचे में बदलाव करना चाहता है जिसके लिए कहा जा रहा है की अब किसान देश में कहीं भी अपनी उपज बेंच सकेगा। दूसरा विधयक संविदा कृषि से जुड़ा है जिसमें कहा गया है कि कंपनियां किसानों के साथ समझौता करके किसी चीज की खेती कराएंगे और उसका एक निश्चित मूल देंगे। तीसरा विधयक उपभोक्ताओं को संरक्षण देने के लिए है जिससे कई तरह की रुकावटों जिन्हें अब तक जमाखोरी रोकने में मददगार नियमों में संसोधन किया गया है। किसानों की आशंका है कि कृषि उपज मंडी की नियमित व्यवस्था में बदलाव से सरकार किसानों से पीछा छुड़ाना चाहती है। मंडी में जो न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है वो असल में अधिकतम है। कई उदारवादी अर्थशास्त्री ये तर्क रखते हैं की न्यूनतम समर्थन मूल्य में उपज को खरीद कर भंडारण करना सरकार पर अनावश्यक बोझ है। परन्तु यहाँ ये तर्क आता है की किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की आवश्यकता क्यों है। इसकी पहली वजह है कि अन्य व्यापार की तरह खेती में इनकम का सतत प्रवाह नहीं रहता है। खेती का खर्च जहाँ 6 महीने से साल भर चलता है वहीं उपज और बिक्री सिर्फ एक या दो बार होती है। इसलिए किसान अक्सर डिस्ट्रेस सेल अथवा विवसता में बेच कर अपनी फसल का दाम वसूलता है जिसमें अक्सर किसान का शोषण होता है। हमारे किसान को सकल घरेलू उत्पाद पर केवल 3.06 प्रतिशत सब्सिडी मिलती है जबकि व्यापार संगठन प्रणाली में 10 प्रतिशत सब्सिडी स्वीकार्य है। सरकार इस तरह के सत्य को जानबूझ कर छुपाती है।”
भाजपा पर वादाखिलाफी का आरोप लगाते हुए, पूर्व केंद्रीय मंत्री शास्त्री बोले, “जब मोदी सरकार 2014 में सरकार में आई थी तो उन्होंने वादा किया था कि वो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों, जिसमें खेती की लागत का 50% जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाना था, को लागू करेगी. बीजेपी ने सरकार में आने के लिए किसानों से ये सबसे बड़ा वादा किया था। पर हुआ कुछ नहीं । फिर सुप्रीम कोर्ट में एक एफिडेविट दायर किया गया और सरकार ने जवाब दिया कि उनके पास ऐसे संसाधन ही नहीं है। फिर इन्होंने किसानों की आय दुगना करने की बात की और पिछले चुनाव से पहले सरकार ने ऐलान कर दिया कि हमने डेढ़ गुना मूल्य का ऐलान कर दिया है। पर सच ये है की स्वामीनाथन आयोग ने सिफारिश की थी कि किसानों की C2 लागत पर 50% जोड़कर एमएसपी तय किया जाए. लेकिन इस सरकार ने A2+ फैमिली लेबर पर 50% जोड़कर दावा कर दिया कि आयोग की सिफारिशें मान ली गई हैं। इसका जोरदार दावा किया गया जिसके बाद किसानों को समझ में आने लगा कि सरकार की कथनी और करनी में कितना फर्क है जिससे सरकार और किसानों में अविश्वास बना। अब इन सब बातों को मिलाकर किसान की आशंकाएं बड़ी वाजिब है और वो यह कह रहा है कि इस विधयक को पूरा का पूरा वापिस लिया जाए”.
किसान बिलों के मूल स्वरूप और विचारों पर प्रकाश डालते हुए शास्त्री जी ने आगे कहा, “मोदी सरकार ने कृषि कानूनों को लेकर ये जताने की कोशिश की कि ये कानून उनके मौलिक विचार थे. लेकिन यहां पर ये जानना अहम है कि इस कानून का विचार इस सरकार ने पहली बार नहीं किया है बल्कि इन तीनों सुधारों की सिफारिश 1990 में वीपी सिंह की सरकार में की गई थी. तब चौधरी देवीलाल उपप्रधानमंत्री और कृषि मंत्री थे. 26 जुलाई 1990 को एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने इस सुधारों की सिफारिश की थी. तब मंडियों की संख्या बढ़ाने की भी सिफारिश दी गई थी. इसमें एमएसपी और कॉन्ट्रैक्ट पर खेती कराने को लेकर सुधार लागू कराने की सिफारिश भी दी गई थी.”
किसानों और सरकार के बीच चल रहे गतिरोध को सुलझाने का उपाय बताते हुए वह बोले, “सरकार को विश्वास वापिस स्थापित करने की पहल खुद करनी चाहिए और तुरंत घोषणा कर देनी चाहिए की न्यूनतम समर्थन मूल्य को वैधानिक गारंटी मिलेगी, सीएसीपी को संवैधानिक दर्जा दे कर स्वायत्त बनाया जाएगा और एक अलग ट्रिब्यूनल बना कर बाकी विवादों का अंत किया जाएगा जो समय सीमा में विवाद सुलझाएंगे। ऐसे पहल के माध्यम से ही विश्वास स्थापित होगा और हल निकलेगा।”