विशेष सम्पादकीय : भाषाई प्रतिस्पर्धा के बीच हिंदी-दिवस की उपयोगिताऔर हमारी बदलती प्राथमिकताएँ
आशीष केडिया
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है।
आज भी हम इसी क्रम में 64वा हिंदी दिवस मना रहे हैं। एक ऐसे समय में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी कई सवालों के घेरे में है और बिहार से लेकर बैंगलोर तक पत्रकार मारे जा रहें हैं, हमे यह समझना बेहद जरुरी हो जाता है की भाषा और अभिव्यक्ति के जीवन में क्या मायने हैं।
कोई भी बोली भाषा बनने से पहले अनेक संघर्षों से गुजरती है। सामजिक स्वीकारिता प्राप्त करते-करते उसमे कई अन्य बोलियों-भाषाओँ के शब्द जुड़ते चले जाते हैं। आज हिंदी में भी कितने उर्दू, अरबी, अंगेजी शब्द पूर्णतः समाहित हो इसके शब्द सागर को बड़ा बना रहे हैं।
परन्तु समस्या यह है की आज खुद हम भाषाओँ को बचाने के नाम पर एक बचकानी प्रतिस्पर्धा में पड़ते जा रहे हैं। समझना जरुरी है की हमारी आपकी हिंदी जहाँ तक भी पहुंची है वो थोपने से नहीं अपनाने से संभव हुआ है। बोलने के अनुसार हिंदी, अंगेजी और चीनी के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है।
पर फिर भी जब ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में हर २-४ साल बाद हिंदी के कुछ शब्द शामिल कर लिए जाते हैं तो उसकी खबरें अख़बारों में छपती है और इसे किसी बड़ी उपलब्धि की तरह गिनाया जाता है। ऐसे अपभ्रंश ख़तम होने चाहिए और नयी पीढ़ी को हिंदी से जोड़ने के व्यावहारिक प्रयास होने चाहिए।
जैसे देश-प्रदेश, अर्थव्यवस्था, खान-पान, वेशभूषा में समय के साथ मूल-चूल परिवर्तन होते रहते हैं वैसे ही हिंदी को एक भाषा के रूप में परिवर्तन समवेशित करने से नहीं रोकना चाहिए।
शुद्धिकरण के नाम पर दिन-ब-दिन कठिन होती जा रहे हिंदी कविता से दूर जाती एक पूरी पीढ़ी को जब किसी हिंदी वाले ने दीवाना, पागल कह कर प्रेम समझाया तो फिर आईआईटीज, आइआइएम्स से लेकर सांस्कृतिक उत्सवों में कवी सम्मेलनों के पंडाल भरने लगे।
इससे समझ आता है की ऐसा नहीं है की लोग इस भाषा को अपनाना नहीं चाहते पर शायद इस सन्दर्भ में हमारी कोशिशों की दशा-दिशा अभी इस पीढ़ी के विचारों से मेल ना खा रही रही हो। हालंकि ये पूर्णतः मेरा निजी मत है जिसमे में गलत भी हो सकता हूँ।
दूसरी बात यह की दिन-प्रतिदिन भाषाओँ के बीच बढ़ती जा रही प्रतिस्प्रधा पर लगाम लगनी चाहिए। कोई भाषा मूल रूप में किसी से बड़ी या छोटी नहीं मानी जा सकती ना मानी जानी चाहिए। भाषा कोई भी हो, उसका सम्मान होना चाहिए, अभिमान नहीं !
हिंदी दिवस की बेहद शुभकामनाएँ !