भारतीय अस्मिता और प्रज्ञा का उत्कर्ष ‘गीता’-प्रोफ़ेसर पी.के.आर्य
श्रीमद भगवद गीता भारतीय अध्यात्म के महासागर में खिला एक ऐसा कमल का पुष्प है ,जिसकी सुरभि में सदियों से उपलब्धियों का जगत सुवासित हो रहा है। योगिराज श्रीकृष्ण के मुखारविंद से झरी गीता ने वैश्विक मनुष्यता को समय पटल पर दो विशिष्ट भागों में विभाजित कर दिया है –‘गीता पूर्व और गीता पश्चात’।परमात्मा द्वारा भारत को दिये गये महानतम उपहारों में ‘गीता‘ और ‘गँगा‘ सर्वोच्च हैं। गँगा एक ओर जहाँ अपने जल से मानव के जरा-जीर्ण तन के मैल को धोने का काम करती है ,वहीँ दूसरी ओर गीता विषाद और वैमनष्य से पूरित मन के मैल को साफ़ करने का काम करती है।गीता भारतीय अस्मिता और प्रज्ञा का एक ऐसा सुन्दर समन्वय है जहाँ ज्ञान और चेतना का अद्भुत उत्कर्ष दृष्टिगोचर होता है।
यह गीता की ही विशिष्टता है कि विश्व के 100 से भी अधिक देशो की 60 से अधिक भाषाओँ में उसका अनुवाद हो चुका है।गीता के श्लोकों को सबसे अधिक उद्धृत किया जाता रहा है।यही नहीं गीता की उत्पत्ति के बाद दुनिया में जितने भी धर्मो का प्रादुर्भाव हुआ उनकी मूल देशना में गीता के ज्ञान की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।
धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए गीता का प्रसिद्द श्लोक है-
‘यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः
अभुय्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।‘
सिख समुदाय के दसवें गुरू गोविन्द सिंह की कार्यप्रणाली और विचारधारा बहुत से स्थानों पर गीता से अभिप्रेरित प्रतीत होती है,पवित्र गुरुग्रंथ साहिब की पंक्तियाँ देखिये-
‘सूरा सो पहचानिए, जो लड़े दीन के हेत
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कट मरे कबहु ना छाडे खेत।‘
विश्व के प्रायः सभी बड़े चिंतक और नेतृत्वकर्ता किसी न किसी रूप में गीता से अभिप्रेरित रहे हैं।राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व और कृतित्व में गीता की जड़ें बहुत गहरे तक जमीं थी।सन 1929 में 21 जून से 2 जुलाई तक गाँधी जी कौसानी (उत्तराखंड ) में रहे थे। अपने इस प्रवास में उन्होंने गीता के गुजराती अनुवाद, अपनी पुस्तक ”अनाशक्ति योग ” की भूमिका लिखी थी।बाद में सरदार पटेल ने जब उनसे पत्र लिखकर पूछा कि –”बापू गीता की सबसे खास बात क्या लगी ?” तब गाँधी जी का उत्तर था –”गीता भय से मुक्त करती है , हमारा भयभीत मन ही हमें बहुत से पापों की ओर उन्मुख करता है।”
कौसानी में गाँधी जी जिस बंगले में टिके हुए थे ,वो कभी कौसानी टी गार्डन नामक चाय बागान के मैनेजर का बंगला हुआ करता था।उस बंगले में उत्तर दिशा की तरफ हिमालय के अभिमुख एक छता हुआ चबूतरा सा है।गाँधी जी एक रात बिस्तर पर लेटे हुए थे कि जंगल से निकलकर एक तेंदुआ वहां आया और चबूतरे का एक चक्कर लगाकर चुप चाप चला गया।बापू इस घटना से तनिक भी विचलित नहीं हुए।बेशक कस्तूरबा ने उन्हें दूसरी रात बंद कमरे में सोने को कहा।पर बापू कहाँ मानने वाले थे। उन्हें डर का कोई कारण महसूस नहीं होता था।लिहाज़ा दूसरी रात बापू और बा दोनों की चारपाईयां वहीँ लगी ….ये अलग बात है कि फिर तेंदुआ नहीं आया।मानो यह इस कथन की सप्रमाण पुष्टि थी कि जिस व्यक्ति में अहिंसा पूर्ण रूप से स्थापित हो जाती है ,उसके समीप आने पर सभी प्राणी वैर भावना तज देते हैं।यथा –”अहिंसा प्रतिष्ठायाम तत्सन्निधौ सर्व प्राणी वैर त्यागः।”
वस्तुतः गीता की उपादेयता और प्रासंगिकता के कईं कारण हैं।यह अकेला ऐसा ग्रन्थ हैं,जो युद्ध क्षेत्र में उदित होने के बावजूद समस्त मानवीय मूल्यों की पैरवी करता है।यही नहीं वैदिक युग के कालखंड में उत्पन्न हुई गीता सभी तरह की सांप्रदायिक और धार्मिक संकीर्णताओं से कोसों दूर है।यही वज़ह है कि गीता उन देशों में भी समान रूप से प्रतिष्ठित है जिन देशों के संस्कार ‘परमात्मा‘ के बजाय ‘पदार्थ‘ की वकालत करते हैं।देश की अदालतों में इसी गीता के सीने पर हाथ रखकर
भारतीय न्याय और सत्य की उम्मीद करते रहे हैं।मान्यता है कि गीता की सौगंध खाने के बाद व्यक्ति असत्य वचन नहीं बोलेगा। गीता पर गंभीरतापूर्वक शोधकार्य भी पहले-पहल विदेशों में ही शुरू हुआ।भारत में गीता जयंती को लेकर कोई खास उत्साह देखने को नहीं मिलता जबकि विदेश में अनेक स्थानों पर गीता जयंती के उपलक्ष्य में व्यापक पैमाने पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।गत वर्ष रविंद्रनाथ टैगोर इंस्टिट्यूट के निमंत्रण पर मुझे मॉरिशस में गीता जयंती पर व्याख्यान देने का मौका मिला ,तो मुझे अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि भारतीय सरोकारों के प्रति विदेशी हम भारतीयों से कहीं ज्यादा संजीदा हैं।
गीता कहीं भी किसी धर्म विशेष का प्रतिपादन नहीं करती ,इसीलिए दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी समस्याओं के हल गीता में मिल जाते हैं।गीता में ‘अर्जुन विषाद योग,सांख्य योग,कर्म योग ,ज्ञान कर्म सन्यास योग,कर्मसन्यास योग,आत्मसंयम योग,ज्ञान विज्ञानं योग ,अक्षर ब्रह्म योग,राजविद्या राजगुह्य योग,विभूति योग,विश्वरूप दर्शन योग,भक्ति योग,क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग,गुणत्रय विभाग योग,पुरषोत्तम योग,दैवासुर सम्पद्वीभाग योग,श्रद्धात्रयविभाग योग तथा मोक्ष सन्यास योग नामक क्रमशः 18 अध्याय हैं ; जो हमारे संपूर्ण जीवन के समस्त प्रश्नों का सटीक हल हमें सुझाते हैं।
समूचा विश्व कर्म के सिद्धांत से सहमत है और इस सिद्धांत के प्रतिपादन में गीता का सानी कोई नहीं।देखिये –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुभरुर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।
(श्री मदभगवद्गीता/सांख्ययोग/श्लोक 47)
फल की चिंता किए बिना अपना कार्य किए जाओ। इसका अर्थ यह है कि जब आप किसी कार्य को संपादित कर रहे हों तो सिर्फ और सिर्फ यह ध्यान रखें कि कार्य को कुशलता से अंजाम तक कैसे पहुंचाया जाए। अब इस सूत्र में आप किसी भी देश ,काल और परिस्थिति में रहने वाले नागरिक को फिट करके देखिये उसको
अपने जीवन का विजय मंत्र मिल ही जायेगा। भारतीय अध्यात्म का विदेश में डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद गीता से बहुत प्रभावित थे।वह कहा करते था कि यदि गीता की एक प्रति का मूल्य दस हज़ार रूपये भी होता, तो मैं उसे सारी संपत्ति बेचकर खरीदता।भारतीय दार्शनिकों के अलावा दुनिया के अनेक विचारक गीता की देशना से प्रभावित रहे हैं।धार्मिक और नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए कालांतर में हुए बहुत से संग्रामों की पृष्ठभूमि में गीता के संदेशों ने उर्वरक वैचारिक खाद-पानी का कार्य किया। रूस के लियो तोलस्तोय की पुस्तक ‘हम और आप ” हो या मक्सिम गोर्की की ‘मेरे विश्वविद्यालय ,चीन के लाओत्से की ‘तेन ते किन‘ हो या फिर जर्मनी के अडोल्फ़ हिटलर की ‘माय स्ट्रगल ‘ सभी ने गीता के सूत्रों से जीवन विजय के मंत्रो को आत्मसात किया है।
वर्ष 2012 में मार्च माह में रूस की एक अदालत में इस्कोन द्वारा प्रस्तुत ‘गीता एस इट इस‘ को बैन करने के लिए एक याचिका दाखिल की गई ,जिसे बाद में रूस के साईबेरियन सिटी ऑफ़ तोमस्क की अदालत ने खारिज़ कर दिया।कुछ लोगों का तर्क था की गीता हिंसा को बढाती है,अदालत ने माना कि यह निराधार है जिन्होंने आरोप लगाया था ,जब उनसे पूछा गया कि क्या आपने गीता पढ़ी है ? उनका जवाब इनकार में था।यही हमारे देश में भी देखने को मिलता है लोग गीता के ऊपर धूप बत्ती और दिया जलाकर अपने कर्तव्यों की इति श्री कर लेते है।गीता स्वाध्याय की पुस्तक है।उसमें निहित मूल्यों को आत्मसात करने की ज़रुरत है।
गीता के वैश्विक स्वीकारिकरण के पीछे एक और सशक्त तथ्य है और वो ये की इससे पूर्व तक मन ,आत्मा और शरीर की इतनी सुन्दर ,वैज्ञानिक और तर्कसंगत व्याख्या किसी भी धर्म के पास नहीं थी, जितनी गीता ने प्रकट की,यथा –
” नैनं छिदंति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः
न चैनं क्लेदयन्त्यपो न शोषयति मारुतः
अच्छेद्योयमदाह्येयमक्लेद्योशोष्य एव च
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोयं सनातनः।”
(श्री मदभगवद्गीता/सांख्ययोग/श्लोक 23-24 )
आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते ,इसे अग्नि जला नहीं सकती ,इसे पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती। यह आत्मा नित्य ,सर्वव्यापी,अचल ,स्थिर रहने वाली और सनातन है।इसका न जन्म होता है और न ही मृत्यु।
यहीं नहीं विश्व विजय का स्वप्न लेकर भारत आने वाले सिकंदर को भी भारतीय ऒज के महान ग्रन्थ गीता से जब प्रेरणा मिली, तो वह अपने लावे लश्कर के साथ वापस लौट गया था। कहते हैं उसके आध्यात्मिक गुरु डायोज़नीज ने उसे गीता का
एक श्लोक अनुवादित करके सुनाया जिससे उसका हृदय परिवर्तन हुआ और वह विश्व विजय के ख्वाब को अधूरा छोड़ वापस लौट गया।यह सूत्र था-”तुम क्या लाये
थे जो तुमने खो दिया ,तुमने किया पैदा किया ,जो नष्ट हो गया,तुमने जो लिया ,यहीं से लिया,जो दिया यहीं पर दिया,जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था
,कल किसी और का हो जायेगा,परिवर्तन ही संसार का नियम है।” यह भी कहा जाता है कि मरने के बाद ताबूत के बाहर दोनों खाली हाथ लटकाने की सिकंदर की अंतिम इच्छा भारतीय अध्यात्म की ही प्रेरणा थी ,ताकि आने वाली पीढ़ी देख सके की कर्म के अलावा कुछ भी साथ नहीं जाता और यदि वो ‘सुकर्म’ है तो युगों–युगों तक लोग उसको आत्मसात करते है ,जिसका प्रबल प्रमाण ‘गीता’ है।
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