हम दशहरा भी मनायेंगें और मुहर्रम भी मनायेगें । पर क्या फायदा
ऐसे दशहरा और मुहर्रम मनाने का जब हमने अपने अंदर ही रावण और यज़ीद को ज़िंदा रख रखा है। रावण में अहंकार था और यही उसकी सबसे बड़ी बुराई थी क्या आज हम में अहंकार नहीं। किसी को सत्ता का अहंकार है तो किसी को दौलत का तो किसी को ताक़त का।
रावण मरा कहाँ वो हम सब के अंदर ज़िंदा है। कर्बला की लड़ाई हक़ और नाहक़ की लड़ाई थी ज़ालिम और मज़लूम की लड़ाई थी। आज हम किसी का हक़ मारते हैं तो शायद अफ़सोस भी नहीं करते ज़ालिम अगर हमारा अपना है तो मज़लूम को देख कर आँखें बंद कर लेते हैं ये यज़ीद की पैरवी नहीं तो और क्या है। सिर्फ रावण को जला देने से या यज़ीद को बुरा कह देने से कुछ नहीं होगा जब तक हम अपने अंदर के रावण और यज़ीद को नहीं मारेंगे।
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