सांप्रदायिक एकता पर भी सेंसर बोर्ड को आपत्ति, डॉक्यूमेंटरी फिल्म ‘द ब्रदरहुड’ पर चलाई कैंची

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पंकज पराशर

-फिल्म को यू की बजाय यू/ए सर्टिफिकेट देना चाहता है बोर्ड

-निर्माताओं को आपत्ति, ट्रिब्यूनल मेें अपील करने की तैयारी

सेंटरल बॉर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफकेशन (सीबीएफसी) का विवादों से रिश्ता सा जुड़ गया है। फिल्म पद्मिनी पर इसलिए आपत्ति थी कि हिन्दुओं की भावनाएं भड़कने और हिन्दू-मुस्लिम एकता को खतरा था। अब सांप्रदायिक सौहार्द्र और हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बनी डॉक्यूमेंटरी फिल्म ‘द ब्रदरहुड’ पर भी बोर्ड को आपत्ति है। महज 24 मिनट की फिल्म में तीन बड़े कट लगाने का आदेश बोर्ड ने दिया है। उसके बाद भी बोर्ड यू/ए सर्टिफिकेट देना चाहता है जबकि, निर्माता यू सर्टिफिकेट मांग रहे हैं।

डॉक्यूमेंटरी फिल्म ‘द ब्रदरहुड’ का निर्माण ग्रेटर नोएडा प्रेस क्लब के सहयोग से जर्नलिस्ट पंकज पाराशर ने किया है। यह फिल्म बिसाहड़ा गांव में अखलाख हत्याकांड (दादरी लिंचिंग केस) के बाद पैदा हुए हालातों से शुरू होती है और ग्रेटर नोएडा क्षेत्र के दो गांवों घोड़ी बछेड़ा और तिल बेगमपुर के ऐतिहासिक रिश्तों को पेश करती है। निर्माता और निर्देशक पंकज पाराशर ने बताया, फिल्म की कहानी और विषय वस्तु लोगों के लिए प्रेरणादायक है। घोड़ी बछेड़ा गांव में भाटी गोत्र वाले हिन्दू और तिल बेगमपुर गांव में इसी गोत्र के मुस्लिम ठाकुर हैं। लेकिन घोड़ी बछेड़ा गांव के हिन्दू तिल बेगमपुर गांव के मुसलमानों को बड़ा भाई मानते हैं। मतलब, एक हिन्दू गांव का बड़ा भाई मुस्लिम गांव है। फिल्म बताती है कि अखलाख हत्याकांड जैसे दुर्भाग्यपूर्ण हादसे से यहां के सामाजिक ताने-बाने पर कोई असर नहीं पड़ा। यहां के लोग इसे केवल राजनीति करार देते हैं।

पंकज पाराशर बताते हैं कि बोर्ड को आपत्ति है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के गोत्र एक नहीं हो सकते हैं, फिल्म से यह बात हटाईये। इस सच को कौन झुठला सकता है। पूरे देश में एक जाति और गोत्र के लोग दोनों संप्रदायों में हैं। फिल्म में बाकायदा दोनों ओर के बुजुर्गों के इंटरव्यू हैं। जो कहते हैं कि हम एक पिता की संताने हैं। कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के कारण मजहब बदल गए हैं। हमारी कल्चर एक है। अगर इस तथ्य को खत्म कर दिया जाएगा तो फिल्म का मूल तत्व की समाप्त हो जाएगा। यह तो दोनों संप्रदायों के बीच मौजूद खून और डीएनए के रिश्तों को छिपाने वाली बात है। हम फिल्म में यही तो दिखाना चाहते हैं कि हिन्दू और मुसलमान एक पिता की औलाद हैं। दोनों ओर का एक गोत्र इसका वैज्ञानिक आधार है।

दूसरी आपत्ति भी आश्चर्यजनक है। ग्रेटर नोएडा के खेरली भाव गांव में 02 अप्रैल 2016 को एक मस्जिद की नींव रखी गई। मंदिर के पंडित ने वैदिक मंत्रोच्चार के साथ मस्जिद की नींव रखी। कार्यक्रम में सैकड़ों लोग शामिल हुए थे। इस घटना पर मीडिया में खूब समाचार प्रकाशित हुए थे। बोर्ड का कहना है कि इस तथ्य को भी डॉक्यूमेंटरी से हटाएं। कुल मिलाकर उन सारी बातों को हटाया जाए जो सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल हैं। लोगों को जोड़ने की प्रेरणा दे रही हैं। तीसरी आपत्ति एक इंटरव्यू में भारतीय जनता पार्टी के जिक्र पर है। पंकज पाराशर का कहना है कि भाजपा का जिक्र हटाने से उन्हें कोई समस्या नहीं है। इससे डॉक्यूमेंटरी की मूल भावना प्रभावित नहीं होती है। लेकिन बाकी दोनों कट समझ से परे हैं।

पंकज पाराशर सवाल उठाते हैँ कि क्या सेंसर बोर्ड केवल मारपीट, सेक्स, फिक्शन और रोमांस से भरी कमर्शियल फिल्मों को सर्टिफिकेट देने के लिए रह गया है। हद तो यह देखिए कि इन तीन कट को लगाने के बाद भी यू सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा। इन तथ्यों के हटाने पर बोर्ड वाले यूए सर्टिफिकेट देंगे। मतलब, बच्चे और किशोर अपने अभिभावकों की गाइडेंस में यह फिल्म देख सकते हैं। अगर सांप्रदायिक एकता और देश की आजादी का इतिहास दिखाने पर भी इतने सेंसर लगेंगे तो फिर प्राइमरी की किताबों से इन विषयों पर पढ़ाए जा रहे लेशन हटा देने चाहिएं। देश के संविधान की प्रस्तावना में ही ये बातें क्यों लिखी गई हैं।

फिल्म के सह निर्देशक हेमंत राजोरा का कहना है कि हम सेंसर बोर्ड के फैसले से सहमत नहीं हैं। सेंसर बोर्ड ने पांच महीनों से फिल्म को लटकाकर रखा है। बार-बार रिविजन और स्क्रीनिंग के नाम पर परेशान किया गया। दस लोगों की रिविजन कमेटी ने अब कांट-छांट करके अवांछित सर्टिफिकेट देने की बात कही है। हम इसके खिलाफ अपीलेट ट्रिब्यूनल जाएंगे। जरूरत पड़ी तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे लेकिन बोर्ड की मनमानी को चुनौती देंगे। हमारे पास सारे तथ्यों के प्रमाण हैं।

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