अाजादी मुझे चाहिए ,ला दो कोई ? लेखक -सुधीर बाबू

अाजादी कहना बहुत अासान है जो की तीन शब्दों मे बंधकर रह गयी है। जिसको शायद लोगों ने जानना ही नही चाहा, कि कैसी हो है अाजादी। वो सारे दरवाजे जो कभी खुले ही नही बंद है तालों में ,जिन तालों में अब जंग भी लग गयी है। ऐसा लगता है कि कोई खोलेगा तो भी नही खुलेगें ये दरवाजे का तालें। दरवाजे चीख रहे है अपनी अाजादी के लिए ,जब भी अावाज देते है ये दबा दी जाती है इनकी आवाद को ,एक नए ताले के साथ। अाजादी सुनते ही दिल मे राहत महसूस होन लगती है मगर अाजादी पाने के लिए कुर्बान होना पड़ेगा सुनते ही कान बंद हो जाते है दरवाजों के। उनको लगता है कोई लोहर हथोड़ा लेकर अायेगा और तालों को तोड कर हमको अाजाद करवायेगा। क्यों की अब उनसे रोया भी नही जाता है क्यों की रोते -रोते उन दरवाजों के गले बैठ गए है। सच कहता हूँ अाजादी सिर्फ कहना ,कानों को सुनने मे अच्छा लगता है, और जैसे जाबुन पेड से गिर जाती है उसी तरह अाजादी शब्द जुबानों से टपकता एक लार सा है जो कुछ पल् की उमंग जरूर भर देता है अधमरे हुए लोगों में ,दरवाजे की तरह। एक नया जोश है अाजादी कहने का ,लेकिन एक दर्दनाक शब्द भी है जो कि रात के अंधेरे मे अगली सुबह की पहली किरण के साथ गायब हो जाता है पता नही कहां चला जाता है। ये अाजादी 2कहने वाले दरवाजे ,जो बोलते हुए भी चुप है। वाहियात तरीकों से ये जीवन जी रहे है दरवाजे और अंदर से बंद खिड़कियां। जिनको पता ही नही कब खुलेंगे और सूरज की रोशनी इनके अंदर बंद अंधेरे को दूर कर सकेगी। ना जाने ये उड़ने वाली चिड़ियाँ ये बेटियां जब तक अपने बाबा के घर रहती हैं तब तक वो अाजाद रहती है उसके बाद ससुराल जाते ही जुर्म अपनी चर्म सीमा पर होता है इन पर ,पति से लेकर सास तक सभी अाजादी छीन लेते है ओर बंद दरवाजे मे काले अंधेरे मे रह जाती है ये आद के समय में ,कभी अाजादी का दंभ भरने वाली बेटियां ,कैद हो जाती है ओर बंद हो जाती है खिड़कियों की तरह। कितनी तड़पती होगी वो जिसे रंडी हो तुम, डायन हो तुम ,ना जाने कितनों को खाकर घर मे्रे अाई है तू ,कहां -कहां मरवाकर अाई है तू ,इतने बड़े तेरे स्तन है किससे नुचवाया है तुमने ,बचन से ही कुकर्म करने लगी थी तू कितनी बच्चों को गिरवा चुकी है तू । ये कहने वाले भूल जाते है कि अाजादी ज्यादा देर तक नही छीन कर रख सकते इनसे तुम । क्या गलती है उनकी अपना सब कुछ छोड़ कर अंजाने घर को अपनाने वाली ये अाजादी को भूल कर हर संकट मे जिंदा रहती है बेटियां, ये खिड़कियों की तरह जो कड़ी धूप ,बर्षा, ठण्ड सब कुछ सहती रहती है। जिनके साथ ब्याह किया है वो अाज चुप छाप क्यों खड़ा है मुर्दे की तरह। ऐसे गुलामों बंदियों पर इतना जुल्म अाखिर क्यों ,ये सवाल अापसे है ? ये हालात है गांव देहातों के हमने खुद अपनी अांखो ओर कानों से सुना तो मे्रे रोंगटे खड़े हो गए , ये कैसी संस्कृत है इन लोगो की इनकी अाजादी कहां है. जो ये बेचारी चुपचाप जुल्म सह रही है। मांगती है अाजादी ये कोन लाकर देगा खुद लड़ना होगा तुमको ,अपनी अाजादी के लिए।
लेखक पेशे से पत्रकार है
ओर व्यंगकार ,स्वत्रंत टिप्पणीकार है।


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