पुस्तक समीक्षा: आजादी की डगर पर पाँव

डॉ. अरुण प्रकाश

घुमंतू पत्रकार शाह आलम की पुस्तक ‘आजादी की डगर पर पांव’ शहीदों की भूली-बिसरी कीर्ति व स्मृति को सहेजने का प्रयास है। लेखक ने पुस्तक की विषयवस्तु तैयार करने के लिए हजारों किलोमीटर की यात्रा कर क्रांतिकारियों व आजादी के गुमनाम मतवालों से संबंधित प्रामाणिक दस्तावेज जुटाये हैं, और यह यात्रा देश के अनेक शहरों-कस्बों-गांवों से होकर गुजरी है। इस दौरान लेखक ने जो देखा और पाया उसे यथारूप संकलित कर लिया है। पुस्तक में राष्ट्र की वेदी पर सब न्योछावर करने वाले वीरों की अकथ कीर्ति कही गई है, और उसके समर्थन में दुर्लभ दस्तावेज साझा किए गए हैं। वहीं उन वीरों के प्रति सरकारी उदासीनता व हमारी कृतघ्नता भी रेखांकित की गई है।

पुस्तक की विषयवस्तु मूल रूप से उन शहीदों के बलिदान व त्याग को जन-जन तक पहुँचाने का प्रयास है, जिनकी चर्चा कम ही होती है। यह दुर्भाग्य ही है कि हम बहुत सारी महत्वपूर्ण व आजादी की लड़ाई में निर्णायक साबित हुई घटनाओं के असल नायकों को जानते तक नहीं है, पुस्तक में उन्हीं नायकों की बलिदानी कथा को सप्रमाण संकलित किया गया है। इसी के तहत शहीद रामचंद्र विद्यार्थी, पिरई खां, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, सरफरोशी की तमन्ना जैसे लोकप्रिय नज्म लिखने वाले बिस्मिल अजीमाबादी, दुर्गा भाभी, रोशन सिंह, प्रताप प्रेस आदि के बारे में रोचक तथ्य व दस्तावेज सहेजे गये हैं।

वहीं पुस्तक का सबसे रोचक पक्ष यह है कि जिन शहीदों के नाम की हम कसमें खाते हैं, उनकी स्मृतियों को सहेजने व आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए हमने क्या किया है? इसे उजागर करने के लिए पुस्तक में आधे-अधूरे निर्मित व उपेक्षित पड़े स्मारकों की ग्राउंड रिपोर्टिंग की गई है। पुस्तक में बेहद संवादात्मक भाषा में देश के सामने क्रांतिकारियों की स्मृतियों, स्मारकों की दुर्दशा, उनके परिवारों की उपेक्षा, तंगहाली व गुमनामी के तथ्य रखे गये हैं। पुस्तक कुछ सवाल भी उठाती है, जो न चाहते हुए भी आपको कुछ सोचने-विचारने पर मजबूर करेंगे। पुस्तक की भाषा बेहद आम और विषयवस्तु पठनीय है।

पुस्तक: आजादी की डगर पर पांव

लेखक: शाह आलम

प्रकाशक: चम्बल फाउंडेशन

मूल्य: 240 रूपये 


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