Congress अपनी साख बचाने के लिए होने वाले 5 राज्यो के चुनाव में किसी के साथ भी गठजोड़ कर सकती है।

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story-चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही ज्यादातर चुनाव सर्वेक्षणों ने पश्चिम बंगाल के चुनाव में ममता बैनर्जी की सत्तावापसी की ही नहीं, पिछली बार से भी बड़े बहुमत से सत्ता में वापसी की भविष्यवाणी कर दी है। इन भविष्यवाणियों ने बरबस देश के 1977 के चुनाव की याद दिला दी है जिसे 2011 के चुनाव में करीब 40 फीसद वोट मिला था, जो तृणमूल को मिले से कुछ ज्यादा ही था, कम नहीं। कांग्रेस के 9 फीसद से ज्यादा वोट और एनसीपी, जनता दल यूनाइटेड आदि अन्य पार्टियों के पिछले वोट को भी जोड़ लिया जाए तो, बंगाल के आधे मतदाता तो वैसे ही ममता राज के खिलाफ खड़े नजर आएंगे। याद रहे कि 2011 की आंधी में भी तृणमूल कांग्रेस को, गठबंधन के लाभ के सारे बावजूद, वह जितनी सीटों पर लड़ी थी उन पर मुश्किल से 50 फीसद वोट ही मिला था। यानी 2011 का नतीजा भले न दोहराया जा सके, इस चुनाव में ममता बैनर्जी के मिनी इमर्जेंसी राज का अंत जरूर हो सकता है। बेशक, इस संभावना का यथार्थ तक पहुंचना अनेक कारकों पर निर्भर करेगा। क्या ‘ममता हटाओ’ के लिए विपक्ष का सारा या लगभग सारा वोट, एक जगह पड़ सकेगा? सौभाग्य से भाजपा को छोड़कर विपक्ष की लगभग सभी पार्टियों ने जिस तरह का यथार्थवादी रुख अपनाया है, उससे इसकी उम्मीद बढ़ी है। यह मुहिम इन पार्टियों के योगफल से बड़ी है। तालमेल में जो कमी-बेशी रहेगी,तभी कांग्रेस ने तमिलनाडु में डीएमके के साथ एलायंस बना लिया है। मतलब कांग्रेस में अकेले, अपनी धुरी पर एलायंस बना कर चुनाव लड़ने का माद्दा नहीं है। ध्यान रहे तमिलनाडु में जमीनी कांग्रेसी नेता वासन ने अलग पार्टी बना ली थी। कांग्रेस में एक विचार था कि छोटी पार्टियों का एक अलग तीसरा मोर्ची बने। इसके पीछे सोच थी कि वहां डीएमके बदनाम है। करुणानिधि बुर्जुग हैं। उनकी जगह स्टालिन ही प्रोजेक्ट होंगे। कांग्रेस के लिए अपनी नई जमीन बनाने का मौका था। मगर सोनिया गांधी-राहुल गांधी ने आसान तरीका अपनाया। अपने को डीएमके से बांध लिया। क्या वैसा ही बंगाल में भी कांग्रेस करेगी? क्या लेफ्ट के साथ कांग्रेस का एलायंस होगा? एक वक्त राहुल गांधी ने कांग्रेस को अकेले अपने दम पर खड़ा करने की रणनीति बनाई थी। वह रणनीति बदल गई है। कांग्रेस की रणनीति का अब मूल सूत्र यह है कि कैसे भी हो एलायंस से मोदी सरकार और भाजपा को घेरने का चक्रव्यूह बने। जाहिर है कांग्रेस में अकेले का, अपने दमखम का आत्मविश्वास नहीं है। इसके कई कारण हैं। मोटी बड़ी बात यह है कि कांग्रेस नेतृत्व और विचार दोनों में अपने को विश्वसनीय नहीं बना पा रही है। राहुल गांधी भागदौड़ भले बहुत कर रहे हों लेकिन जनता में भरोसा नहीं बन रहा है कि वे राजकाज में समर्थ हैं। उनकी भागदौड़, उनकी राजनीति, उनके जुमले भारत विरोधी उन लेफ्ट चरमपंथियों से मेल खा रहे हैं जो सियासत के फ्रींज एलीमेंट हैं। राहुल गांधी गलत सलाह में अनजाने ऐसे जाल में फंस रहे है जिससे कांग्रेस छोटी, फ्रींज पार्टीं बने। वे लेफ्ट के साथ जुड़ कर कांग्रेस को मुश्किल में डालने वाले हैं। कांग्रेस इससे अंततः अरविंद केजरीवाल, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी से भी कमजोर हैसियत में फंसेगी। लगता है कांग्रेस और राहुल गांधी मानो बिना रोडमैप के हैं। आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की प्रतिष्ठा दांव पर है। असम और केरल में कांग्रेस यदि वापिस नहीं जीती तो ग्राफ बहुत गिरेगा। उस नाते तमिलनाडु में कांग्रेस ने जो एलायंस बनाया है उसमें यथास्थिति वाली रणनीति झलकी है। कुछ मायनों में कांग्रेस प्रदेशों की स्थिति के अनुसार टेक्टीकल चुनावी रणनीति सोच रही है। पर कांग्रेस का बुनियादी संकट यह है कि प्रदेश सरकार की एंटी इस्टेबलिसमेंट हवा है। उसे कवर करने के लिए राष्ट्रीय लीडरशीप की जो धमक बननी चाहिए वह नहीं बन रही। जिस तरह बिहार में राजद और जदयू एक साथ आए, उसी तरह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के साथ आने की चर्चा शुरू हुई है। पहले कांग्रेस और लेफ्ट एक साथ सरकार में रह चुके हैं, लेकिन कभी साथ मिल नहीं लड़े हैं। इस बार कहा जा रहा है कि औपचारिक या अनौपचारिक रूप से दोनों पार्टियां साथ मिल कर लड़ने की बात कर रही हैं। असम में कांग्रेस ने बदरूद्दीन अजमल की पार्टी से तालमेल नहीं किया है, लेकिन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने सीटों के एडजस्टमेंट की बात कही है। उत्तर प्रदेश में भी पार्टी गठबंधन की सहयोगी तलाश रही है तो पंजाब में कांग्रेस नेता बसपा के साथ तालमेल की संभावना देख रहे हैं। इसी तरह पार्टी ने तमिलनाडु में डीएमके से तालमेल कर लिया है। राहुल गांधी काफी अरसे तक तमिलनाडु विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी डीएमडीके के संपर्क में थे। वे कैप्टन विजयकांत के साथ तालमेल करना चाहते थे। यह भी माना जा रहा था कि कांग्रेस इस बार नया तालमेल करके एक ताकत बन सकती है। लेकिन कांग्रेस ने अंततः यथास्थिति बनाए रखी। 2004 से लेकर 2013 तक नौ साल दोनों पार्टियां एक साथ रही थीं। 2013 में डीएमके ने संबंध तोड़ा था। अब फिर दोनों साथ आ गए हैं। कांग्रेस ने जयललिता को शिकस्त देने के लिए यह आसान रास्ता चुना। जैसा कि तमिलनाडु में बरसों से होता आ रहा है, हर पांच साल में सत्ता बदल जाती है। अगर इस बार भी वैसा हुआ तो कांग्रेस बिना किसी खास मेहनत के वहां सत्ता में आ जाएगी। हर राज्य में कांग्रेस के गठबंधन की राजनीति करने के पीछे दो कारण बताए जा रहे हैं। पहला कारण तो यह है कि कांग्रेस नेतृत्व 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले हर राज्य में भाजपा को हराना चाह रहा है। कांग्रेस नेताओं को लग रहा है कि कोई हराए, लेकिन राज्यों में भाजपा हारे। जैसे दिल्ली और बिहार में हारी, वैसे अगर पार्टी दूसरे राज्यों में हारती है तो नरेंद्र मोदी की हवा खत्म होने का संदेश जाएगा। भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरेगा और खुद मोदी भी पहले जैसे मनोबल के साथ चुनाव में नहीं जाएंगे। तभी कांग्रेस राज्यों में तालमेल कर रही है ताकि भाजपा को रोका जा सके। दूसरा कारण यह है कि कांग्रेस व राहुल गांधी दोनों को जमीनी हकीकत का अंदाजा लग गया है। उनको लग रहा है कि कांग्रेस अभी प्रादेशिक क्षत्रपों के सामने खड़ी होने में सक्षम नहीं है। जिन राज्यों में उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है, वहां तो लड़ाई है, लेकिन जहां क्षेत्रीय पार्टियां हैं, वहां कांग्रेस का वोट उनके साथ चला गया है। इसलिए कांग्रेस की मजबूरी है कि वह क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मिल कर लड़े। कांग्रेस नेताओं को यह भी लग रहा है कि अगर वे भी लड़ते हैं और मुकाबला तिकोना या चारकोणीय होता है तो भाजपा को उसका फायदा होगा। इसलिए कांग्रेस अपने हितों को त्याग कर भाजपा को रोकने में लगी है।

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