भगवान रजनीश ‘ओशो’ को छोड़ने पर मुझे मिली सही मायने में आजादी, उससे पहले मैं रजनीशपुरम की रानी थी : राघव – टेन न्यूज़ से ख़ास बातचीत में बोलीं मा आनंद शीला
11 दिसंबर, 1931 को जन्मे आचार्य रजनीश ‘ओशो’ का नाम 20वीं सदी के आध्यात्मिक गुरुओं में प्रमुखता से लिया जाता है। वह, उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने सभी धर्मों का खंडन करते हुए एक अलग ही पंथ चलाया था। एक जमाने में रजनीश ओशो की सबसे करीबी और प्रिय रहीं मां आनंद शीला ने बताया की जब वो ओशो के साथ पहली बार अमेरिका गई तो सब कुछ इतना संयोजित तरह से हुआ कि रजनीश को इमीग्रेशन की लाइन से भी नहीं गुजरना पड़ा।
80 के दशक के विवादित गुरु ओशो के सबसे नजदीक रही शीला ने राघव मल्होत्रा से बातचीत में कहा की अमेरिका में रजनीशपुरम नाम का एक पूरा शहर बसाना सिर्फ भगवान के आशीर्वाद से संभव हो सका था।
अपनी ओशो से मुलाकात के बारे में बताते हुए माता शीला बोली, “भगवान रजनीश से मेरी पहली मुलाकात 16 साल की उम्र में हुई थी। मेरे पिताजी मुझे उनसे मिलाने ले गए थे। ये एक अदभुत अनुभूति थी । उम्र की वजह से मुझे तब सही समझ नहीं आया पर कुछ साल बाद मुझे समझ आ गया कि मैं भगवान से प्यार करती हूँ।”
ओशो के आदर्शों पर प्रकाश डालते हुए वो बोलीं, “ओशो पूरी दुनिया को एक परिवार की तरह मानते थे और उनका कहना था हर तरह की सीमाएँ मिटा देनी चाहिए।”
ओशो के नाम से पहचाने जाने वाले दिवंगत संत रजनीश की सचिव रहीं मां आनंद शीला ने कहा की वो शहर उस समय द्वेषभाव और ईष्र्या की वजह से बर्बाद हुआ। “उंन्होने हमारे होटल जला दिए, भगवान के ख़िलाफ़ दुर्भाव फैलाया। इस तरह के लोग हर जगह हैं और उन्हें खुद से दूर रखना चाहिए ।”
70 वर्षीय मां आनंद शीला ने कहा की जब सितंबर 1985 में जब उन्होंने भगवान को छोड़ा तब उन्हें सही मायने में आज़ादी मिली। “ओशो केहते हैं की मैंने उन्हें अलविदा भी नहीं कहा। मैं उनसे मिलने नहीं गई क्योंकि मुझे उन्हें दुखी नहीं करना था, बल्कि मैंने चिट्ठी लिख के उनसे विदा मांगी थी। इस समय के बाद मैंने अपनी जिंदगी जी। हालाँकि इससे पहले मैं रजनीशपुरम की रानी थी। उस पूरी जगह को मैं ही संचालित करती थी”.