सोशल मीडिया यानी ऐसा माध्यम जिस पर समाज का सीधा दखल है। यह हमें इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध होता है और ऐसा माध्यम है जिसके सहारे देश में अनेक जागरूकता कार्यक्रम एवं आंदोलन सफलतापूर्वक संचालित किए गए हैं। लेकिन वैश्वीकरण के दौर में पैदा हुए सोशल मीडिया के अंधाधुंध उपयोग और अनुसरण के खतरनाक नतीजे भी लोगों के सामने आने लगे हैं। लोगों के समक्ष यक्ष प्रश्न है कि वह सोशल मीडिया पर कितना भरोसा करे, उसे किस स्वरूप में स्वीकार करे और क्या सोशल मीडिया मुख्य मीडिया का विकल्प भी साबित हो सकता है?
सर्वविदित है कि वर्ष 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन, इसके पूर्व नोएडा के चर्चित आरुषि हत्याकांड और दिसंबर 2012 में दिल्ली के निर्भया बलात्कार प्रकरण में न्याय दिलाने में सोशल मीडिया ने सशक्त भूमिका निभाई है। सोशल मीडिया के माध्यम से चलाए गए विभिन्न सशक्त आंदोलनों ने यह साबित कर दिया है कि यह आम आदमी के पास एक ऐसा हथियार आ गया है जिसका उपयोग वह समाज में जागरूकता पैदा करने के लिए कर सकता है। दूसरी ओर, इसके अंधानुकरण और दुर्पयोग ने लोगों के पारिवारिक जीवन और स्वास्थ्य पर सीधा प्रतिकूल असर डाला है।
वर्ष 1972 में अमेरिका के दो पत्रकारों कार्ल बर्नस्टीन और बॉब वुडवर्ड ने वाशिंगटन पोस्ट अखबार में वाटरगेट स्कैंडल नामक खोज खबर प्रकाशित की। इस खबर के प्रकाशित होने के पश्चात अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को राष्ट्रपति के पद से इस्तीफा देना पड़ा था। उसके बाद प्रिंट मीडिया की ताकत बहुत तेजी से बढ़ी और यह कहा जाने लगा कि मीडिया सरकारें बना और गिरा सकता है। अखबारों के साथ ही साथ पत्रिकाओं का प्रसार भी तेजी से बढ़ा।
1990 के दशक में वैश्वीकरण का दौर शुरु हुआ, जहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खासतौर से प्राइवेट न्यूज चैनलों का प्रादुर्भाव भी तेजी से बढ़ा। इसी दौर में ही वेब मीडिया नामक शिशु इसी घर में पैदा हो गया। इस मीडिया ने धीरे धीरे अपने पैर पसारने शुरु कर दिए और आज हर घर खासतौर से युवाओं के बीच में बेहद लोकप्रिय हो गया है। इकोनॉमिस्ट नामक पत्रिका ने 2004 में एक खास खबर प्रकाशित की थी जिसमें उसने लिखा था कि अखबार समाप्त हो गए हैं। हालांकि यह समय से पूर्व की गई स्टोरी थी। मीडिया जगत के मुगल बादशाह माने जाने वाले रुपर्ट मार्डोक ने इसी लेख में प्रकाशित साक्षात्कार में इस बात का जवाब दिया था कि अखबारों को डूबने से बचाने का कार्य अखबारों में काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार ही कर सकते हैं। लेकिन वे ऐसा नहीं इसलिए नहीं करेंगे क्योंकि अखबारों के मालिकों ने कार्यरत पत्रकारों के आर्थिक, मानसिक, स्वास्थ्य संबंधी विकास के लिए कुछ नहीं किया। पत्रकारों का मानना था कि अगर वे डूब रहे हैं तो उन्हें डूबने दो।
युवा पीढ़ी में न्यूजपेपर ऑन पेपर पढ़ने में दिलचस्पी कम हुई है। एक सर्वे के अनुसार 50 से 55 या इससे अधिक आयु के लोग अखबार अधिक पढ़ते हैं जबकि इससे कम आयु के ज्यादातार लोग खबरें ऑनलाइन डेस्क टॉप, स्मार्टफोन या लैपटॉप पर पढ़ना अधिक पसंद करते हैं। लगभग हर हाथ में स्मार्टफोन होने के कारण लोगों की सक्रियता सोशल मीडिया-फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, गूगल प्लस, लिंकदेन इत्यादि में अधिक बढ़ी है। लोगों को टीवी और अखबार से पहले खबर सोशल मीडिया में मिल जाती है। जो खबरें अखबार और चैनल में नहीं आ पातीं, वे लोगों को इस मीडिया में मिल जाती हैं। बड़ी दिलचस्प बात यह है कि सोशल मीडिया के माध्यम से मिलने वाली खबरों में विश्वसनीयता का जबर्दस्त संकट है। चूंकि खबरें बिना पुष्टि और खबरों के मानकों की कसौटी में कसे बगैर चलाई जा रही हैं, इसलिए वे बेहद रद्दी किस्म की हैं। इस माध्यम से आ रही खबरों को फिल्टर करने की जरूरत है। खबरों के फिल्टर न होने की वजह से इसमें सूचनाएं कम और अफवाहें ज्यादा हैं।
सोशल मीडिया में अफवाहें अधिक होने के बावजूद आज राजनैतिक दल, सामाजिक, आर्थिक संगठन, कार्पोरेट जगत और अन्य विभिन्न संस्थान अपने प्रचार-प्रसार के लिए इस माध्यम का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद होने वाले विधानसभाओं के विभिन्न चुनावों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल सर्वविदित है। इस मीडिया के इस्तेमाल से जहां लोग तेजी से अपडेट हो रहे हैं वहीं इस माध्यम ने मानव के जीवन पर प्रतिकूल असर डालने का काम भी किया है। सोशल मीडिया के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण लोगों की अखबारों, मैगजीन, किताबों के पठन-पाठन में रुचि कम हुई है। लोगों के पारिवारिक संबंधों और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया अभी अपने शैशवकाल से गुजर रहा है। ऐसे में इसके माध्यम से मिलने वाली सूचनाओं पर सीधा भरोसा करने की जगह उनका डीएनए टेस्ट करने की आवश्यकता है। चूंकि प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और कुछ न्यूज पोर्टलों में काम करने वाले लोग प्रशिक्षित हैं, लिहाजा वे हर खबर को समाचार की कसौटी पर कसने के उपरांत ही जारी करते हैं लेकिन सोशल मीडिया में काम करने वाले लोग चूंकि आम लोग हैं, इसलिए उसमें सूचनाओं को फिल्टर करना संभव नहीं है। ऐसे में सोशल मीडिया तब तक मीडिया का सशक्त माध्यम नहीं बन सकता, जब तक वह पत्रकारिता की अग्नि परीक्षा से नहीं गुजरता।
(नोट-लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं )