अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस विशेष: रूढ़िवादी सोच को ‘रिफ्रेम’ करने का वक्त

लेखक: विनीत त्रिपाठी, सीनियर मैनेजर, ब्रेकथ्रू

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सुरेश गुरुग्राम के एक निजी स्कूल में गार्ड है। वो आज आईवीएफ सेंटर पर डॉक्टर से बच्चे के लिए बात करने आए है। इसी आईवीएफ सेंटर पर चौथे प्रयास में उन्हें एक बेटी हुई थी जो अब चार साल की हो चुकी है। लेकिन एक बेटे की चाह उन्हें फिर यहां खींच लाई है।

हजारीबाग की रेखा का स्कूल कोविड की वजह से बंद है लेकिन ऑनलाइन क्लास चल रही है अब क्लास अंटेंड करने के लिए  रोज उसकी अपने भाई से मोबाइल के लिए लड़ाई होती है लेकिन जीत भाई की ही होती है क्योंकि माता-पिता बीच में आ जाते हैं और कहते हैं भाई की पढ़ाई जरूरी है तुझे कौन सा कलेक्टर बनना है, कुछ साल में तेरी शादी ही हो जाएगी, चल घर के काम कर ले।

अनुराधा लखनऊ की एक हॉस्पिटल में काम करती है लेकिन वह अब मुंबई शिफ्ट होना चाहती है लेकिन जब यह बात उसके बॉस को पता चलती है तो वो इसका कारण पूछते हैं तो वह कहती है उसे ज्यादा पैसे कमाने हैं इसलिए वो मुबंई जाना चाहती है। इस बात पर वह मुस्कराते हुए कहता हैं क्या करना है तुमको इतने पैसे का, तुम्हारी जरूरत भी कितनी है? शादी होने के बाद पति का सब तुम्हारा ही तो होगा इस पर पलटकर अनुराधा उनसे सवाल करती है… क्या वो अपने एक पुरुष कर्मचारी से भी यह सवाल करते ? वो चुप हो जाते हैं।

हैलो……क्या आप के पास कोई जवाब है? शायद नहीं होगा क्योंकि तमाम प्रयासों और जागरुकता अभियानों के बाद भी देश में लड़कियों की स्थिति किसी भी तरह से सही नहीं दिखती है। लिंग के नाम पर कभी उनका गला गर्भ में ही घोंट दिया जाता है तो कहीं उन्हें अंतिमा नाम देकर ‘अब बस’ कह दिया जाता है। जन्म ले भी लिया तो पढ़ाई से लेकर बाहर आने-जाने, नौकरी, च्वाइस, उनके खाने-पीने और बोलने तक पर मर्यादा के नाम पर पितृसत्तात्मक सोच के प्रतिबंध नियम और शर्तों के साथ बाई डिफाल्ट लागू होते हैं और कहीं आगे बढ़ने का मौका मिला तो मर्दवादी सोच उसे अपनी कृपात्मक ‘छूट’ का नाम दे देती है।

आईये आंकड़ों से भी देखते और समझते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर लड़कियां 21 वीं सदी में भी लैंगिक भेदभाव व हिंसा से कैसे जूझ रही हैं।

गैर सरकारी संगठन सेंटर फॉर कैटलाइजिंग चेंज (सी3) ने ‘डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन’ (डीईएफ) के साथ मिलकर भारत में युवा लड़कियों की डिजिटल पहुंच को समझने के लिए 10 राज्यों में एक सर्वे किया गया। सर्वेक्षण में निकल कर आया कहा कि परिवार का दृष्टिकोण और पूर्वाग्रह लड़कियों को डिजिटल उपकरण का उपयोग करने के लिए दिए गए समय को प्रतिबंधित करता है। 42 प्रतिशत लड़कियों को एक दिन में एक घंटे से भी कम समय के लिए मोबाइल फोन तक पहुंच की अनुमति दी जाती है। सर्वे में निकल कर आया कि अधिकांश माता-पिता को लगता है कि मोबाइल फोन ‘असुरक्षित’ है और यह किशोरियों का ध्यान प्रतिकूल तरीके से ध्यान बंटाता है। सर्वेक्षण में पाया गया स्मार्टफोन, कंप्यूटर या अन्य डिजिटल उपकरणों उपयोग में परिवार के पुरुष सदस्य को हमेशा ही प्राथमिकता दी जाती है।

‘मैपिंग द इंपैक्ट ऑफ कोविड-19’ नाम से पांच राज्यों दिल्ली,उत्तर प्रदेश,तेलंगाना,असम और बिहार में की गई स्टडी में कहा गया की संभावना है क सेकेंडरी स्कूल में पढ़ रही लगभग 20 मिलियन लड़कियां कभी स्कूल न लौट सकें। स्टडी में सामने आया है कि किशोरावस्था की लगभग 37% लड़कियां इस बात पर निश्चित नहीं कि वे स्कूल लौट सकेंगी। ग्रामीण और आर्थिक तौर पर कमजोर परिवारों की लड़कियां जिनकी पढ़ाई पर पहले से ही संकट था उन पर यह और गहरा गया है। लड़कों की बजाए दोगुनी लड़कियां कुल मिलाकर 4 साल से भी कम समय तक स्कूल जा पाती हैं., जबकि राइट टू एजुकेशन (RTE) के तहत 6 से 14 साल तक की आयु के बच्चों के लिए 1 से 8 कक्षा तक की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था है. स्कूल के इन 8 सालों में से लड़कियां 4 साल भी पूरे नहीं कर पाती हैं।

कोविड की वजह से स्कूल बंद होने पर डिजिटल माध्यम से पढ़ाने की कोशिश हो रही है। इससे लड़कियों को नुकसान ही हुआ. दरअसल हो ये रहा है कि मोबाइल और इंटरनेट की सुविधा अगर किसी घर में एक ही शख्स के पास है और पढ़ने वाले लड़के और लड़की दोनों ही हैं तो लड़के की पढ़ाई को प्राथमिकता मिलती है। 37% लड़कों की तुलना में महज 26% लड़कियों ने माना कि उन्हें पढ़ाई के लिए फोन मिल पाता है।

ई-लर्निंग के दौरान लड़कियों के पीछे जाने का एक कारण ये भी है कि वे स्कूल न जाने के कारण घर के कामों में लगा दी जाती हैं. तकरीबन 71 प्रतिशत लड़कियों ने माना कि कोरोना के बाद से वे केवल घर पर हैं और पढ़ाई के समय में भी घरेलू काम करती हैं. वहीं लड़कियों की तुलना में केवल 38 प्रतिशत लड़कों ने बताया  कि उन्हें घरेलू काम करने को कहे जाते

मेट्रोपॉलिस हेल्थकेयर ने देश के 36 शहरों में एक सर्वे किया, जिसमें पाया गया कि हर 10 में 6 लड़कियां और महिलाएं (15 से 48 आयु वर्ग) अलग-अलग स्तर के एनीमिया का शिकार हैं।
इसके अलावा एनसीआरबी हालिया रिपोर्ट बताती है कि देश में हर रोज औसतन 77 मामले रेप के दर्ज होते है।

नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में भी बताया गया कि जन्म के समय प्रति एक हजार लड़कों पर लिंगानुपात घट कर 899 हो गया है।

अब बड़ा सवाल है कि नाउम्मीदी से भरे यह आंकड़े बदलेंगे कैसे और क्या यह बदल सकता है?

‘हां’ यह बदल सकता है, बस इसके लिए हम सब को पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ एक समानता वाला समाज बनाने के लिए खड़ा होना होगा जिसमें लिंग के आधार पर कोई भेदभाव व हिंसा की जगह न हो। उनके स्वास्थ्य,पोषण का ख्याल रखना होगा। महामारी के प्रभावों से बाहर निकलते हुए लड़कियों को फिर से स्कूल भेजना होगा, उनकी शादी की जगह पढ़ाई पर जोर देना होगा, उनके करियर पर भी निवेश करना होगा और उनके सपनों को पूरा करने के लिए उन्हें उड़ने देना होगा, लड़कियों के जन्म पर थाली पीटना और लड्डू बांटना होगा। खुद भी समझना होगा और लड़कों को भी समझाना होगा कि लड़का और लड़की में कोई भेद नहीं दोनों एक-समान है। सिविल सोसाइटी के साथ ही समुदायों और सरकारों को भी इस दिशा में गंभीरता के साथ काम करने की जरूरत है। अब लड़कियों का नाम अंतिमा की जगह आरंभ रखने का वक्त आ चुका है क्योंकि इसके बिना अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस पूरा नहीं हो सकता।

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