आहार का विज्ञान, विचार एवं स्वास्थ्य: डाॅ. अलका अग्रवाल

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अलका अग्रवाल

 

जितने भी महापुरूष, संन्यासी, महात्मा, साधु, ऋषि, महाराज हैं, वे सभी शुद्ध एवं संयमित भोजन करते हैं। इसलिये उनके विचार उनकी सोच और उनके मुँह से निकले हुए शब्द भी उसी प्रकार शुद्ध, नपे-तुले संतुलित एवं शिक्षा प्रदान करने वाले होते हैं। आहार, विचार एवं स्वास्थ्य ये तीनों ही एक माला के दमकते मोती हैं। सभी एक दूसरे के पूरक हैं और एक-दूसरे पर आधारित हैं। अशुद्ध आहार से विचार भी अशुद्ध होते हैं और हमारा स्वास्थ्य भी।

अमीबा जैन ग्रंथों में प्रतिपादित एकेन्द्रिय से बिलकुल अलग है। क्योंकि जैनाचार्यों ने जिन एकेन्द्रिय की व्याख्या की है वह स्थावर है जबकि अमीबा एकेन्द्रिय होते हुए भी त्रस अर्थात् गतिशील है। ओजाहार के संबंध में यह पहले ही कहा जा चुका है कि यह शरीर द्वारा अर्थात् त्वचा की सहायता से होता है।

हम स्वस्थ रहें इसके लिये हमें अपने खाने की आदतों पर ध्यान रखना होगा। हमें क्या खाना है और कब खाना है, इसपर भी गौर करना होगा। खाना या आहार कैसा हो? अगर हम स्वच्छ, शाकाहारी भोजन करें और समय पर आवश्यकतानुसार खायें तो हमारा शरीर स्वस्थ रहेगा। जहाँ आहार और वह भी शाकाहार, की जब बात आती है तो वहाँ स्वतः ही हमारा ध्यान जैन आहार की तरफ चला जाता है। जैन धर्म जीने की एक उत्तम विधि तो हमें बताता ही है, साथ ही जैन भोजन हमारे शरीर को स्वस्थ रखने में भी बहुत सहायक है। जैन धर्म में आहार की जो व्यवस्था बताई गई है, वह पूर्णतया वैज्ञानिक है। महावीर भगवान अहिंसा परमोधर्मः का प्रचार करते थे, इसलिये जैनी शाकाहारी भोजन का ही सेवन करते हैं। मांसाहारी या तामसिक भोजन में कहीं न कहीं जीवहत्या अवश्य होती है। इसलिये जैन धर्म में इस प्रकार के भोजन को निषेध बताया गया है।
स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मस्तिष्क दोनों ही के लिये शुद्ध आहार बहुत आवश्यक है। एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क विद्यमान होता है। प्रायः देखने में आता है कि जिस व्यक्ति का जैसा आहार होता है, उसके विचार भी उसी प्रकार के होते हैं। शुद्ध आहार लेने वालों के विचार भी शुद्ध होते हैं और दूषित एवं अशुद्ध भोजन करने वालों के विचार भी दूषित होते हैं। जितने भी महापुरूष, संन्यासी, महात्मा, साधु, ऋषि, महाराज हैं, वे सभी शुद्ध एवं संयमित भोजन करते हैं। इसलिये उनके विचार उनकी सोच और उनके मुँह से निकले हुए शब्द भी उसी प्रकार शुद्ध, नपे-तुले संतुलित एवं शिक्षा प्रदान करने वाले होते हैं। आहार, विचार एवं स्वास्थ्य ये तीनों ही एक माला के दमकते मोती हैं। सभी एक दूसरे के पूरक हैं और एक-दूसरे पर आधारित हैं। अशुद्ध आहार से विचार भी अशुद्ध होते हैं और हमारा स्वास्थ्य भी।
जीवधारियों का शरीर रेल के इंजन, मोटर इंजन, मोटर इंजन के समान ही है। जिस प्रकार एक इंजन को चलाने के लिए उसे ऊर्जा प्रदान करने की आवश्यकता होती है, जो उसे कोयला जलाकर पानी को भाप में बदलकर अथवा डीजल, पेट्रोल या विद्युत आदि के रूप में दी जाती है, उसी प्रकार जन्तुओं के लिए भी उनके कार्य करने के लिए ऊर्जा प्रदान करना परमावश्यक है। किसी भी शारीरिक कार्य को करने में ऊर्जा का क्षय होता है। इस क्षय हुई ऊर्जा की पूर्ति के लिए शरीर के तत्व ईंधन का काम करते हैं। अतः शारीरिक कार्य करने में प्रत्येक जीवधारी के शरीर के तत्वों को क्षय बराबर होता रहता है। यदि जीव इन क्षय हुए तत्वों को पुनः शरीर को प्रदान कर उनकी कमी को पूरा न करता रहे तो धीरे-धीरे उसका शरीर दुर्बल होता जाएगा और अंत में बिलकुल नष्ट हो जाएगा। आहार इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। जैन विद्वानों ने अपनी रचनाओं में आहार के लक्षण, विभेद कौन से आहार लेने योग्य हैं, कौन से आहार अयोग्य हैं, आदि कई महत्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने आहार लेने की प्रक्रियाओं का भी उल्लेख किया है। जैन ग्रंथों में तीन तरह की आहार प्रक्रिया का उल्लेख मिलता है – 1. ओजाहार 2. लोमाहार और 3. प्रक्षेपाहार। आहार प्रक्रिया से तत्पर्य जीवों द्वारा आहार ग्रहण करने की विधि से है। अपने उत्पत्ति स्थान में आहार के योग्य पुद्गलों का जो समूह होता है वह ‘ओज’ कहलाता है और इसे जब आहार रूप में ग्रहण किया जाता है तो वह ओजाहार कहलाता है। जन्म के पूर्व शिशु द्वारा माता के गर्भ में सर्वप्रथम जो आहार शरीर पिण्ड द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह ओजाहार है। सामान्य तथा ओजाहार जीव के शरीर द्वारा ग्रहण किया जाता है। जीव वैज्ञानिकों ने अमीबा नामक जीव को भी ओजाहारी ही कहा है। यह एक अत्यंत सूक्ष्म जीव है और मात्र एक इन्द्रिय स्पर्श से युक्त होता है। परंतु हमें यहाँ यह भी जानना होगा कि अमीबा जैन ग्रंथों में प्रतिपादित एकेन्द्रिय से बिलकुल अलग है। क्योंकि जैनाचार्यों ने जिन एकेन्द्रिय की व्याख्या की है वह स्थावर है जबकि अमीबा एकेन्द्रिय होते हुए भी त्रस अर्थात् गतिशील है। ओजाहार के संबंध में यह पहले ही कहा जा चुका है कि यह शरीर द्वारा अर्थात् त्वचा की सहायता से होता है।
जीव विज्ञान में कुछ ऐसे भी जीवों का उल्लेख किया गया है जो दूसरे जीवों के शरीर में उत्पन्न होते हैं, वहीं निवास करते हैं, वहीं संतानोत्पति करते हैं, जीवन की संपूर्ण क्रियाओं का सम्पादन करते हैं और मृत्यु को भी प्राप्त करते हैं। उन्हें परजीवी ;च्ंतंेपजमेद्ध कहा जाता है। ये सभी परजीवी ओजाहारी होते हैं। मलेरिया, फाइलेरिया जैसे रोगों का कारण ये परजीवी ही हैं। ये मच्छर मनुष्य, पशु के शरीर में अपना जीवन चक्र पूर्ण करते हैं। प्रक्रिया इस प्रकार चलती है मच्छर (मादा) जब मनुष्य को काटती है तब उसके शरीर में पल रहा परजीवी मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। यह मनुष्य के शरीर में पहले यकृत ;स्पअमतद्ध में पलता है तत्पश्चात् वहाँ से लाल रक्त में चला आता है। यहाँ यह लाल रक्त कणों को अपना आहार बनाता है। अब जब मच्छर पुनः प्रभावित व्यक्ति को काटता है (खून चूसता है) तो  वह परजीवी मच्छर के शरीर में चला आता है और इस तरह से यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। चूंकि ये परजीवी अपने उत्पत्तिस्थान में स्थित पुद्गल (लहू के कण) का ही आहार करते हैं और यह ओजाहार के रूप में ही लिया जा सकता है और यही कारण है कि मलेरिया आदि जैसे रोगों को फैलाने वाले परजीवी ओजाहारी कहे गए हैं।
वनस्पति को भी एकेन्द्रित और स्थावर जीव माना गया है। ये भी ‘ओजाहारी ही होते हैं। आहार की इस प्रक्रिया में वनस्पति या पौधे अपनी पत्तियों, शाखाओं, शरीर के समस्त हरे भाग (पर्णशाद) द्वारा वायुमंडल से कार्बन डायइक्साइड गैस को सोखते हैं। फिर वे शोषित पदार्थ जड़ों से जाए भोजन के जलीय भाग में घुल जाते हैं। तत्पश्चात् प्रकाश संश्लेषण ;च्ीवजवेलदजीमेपेद्ध क्रिया द्वारा इसमें रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जिससे शक्कर बनता है। इसी शक्कर का कुछ भाग स्टार्च, कुछ कार्बोहाइड्रेट, कुछ प्रोटीन आदि में बदल जाता है।
जो आहार त्वचा या रोमकूप द्वारा ग्रहण किया जाता है उसे रोमाहार कहा जाता है। इसे लोमाहार भी कहा जाता है। सूत्रकृतांग निर्युक्ति में कहा गया है कि शरीर की रचना पूर्ण होने के बाद जो प्राणी बाहर की त्वचा या रोम छिद्रों द्वारा आहार ग्रहण करते हैं, उनका वह आहार लोमाहार है। त्वचा द्वारा जब भी आहार किया जाएगा तो आहार का स्पर्श अवश्य होगा क्योंकि त्वचा स्पर्शेन्द्रिय है और स्पर्श की अनुभूति (यथा चिकना, रुक्षादि) करना इसका स्वभाव है। अतः रोमाहार के बारे में यह भी कहा जा सकता है कि त्वचा या रोमों द्वारा स्पर्शपूर्वक लिया जाने वाला आहार रोमाहार है।
तीसरा आहार प्रक्षेपाहार है। ग्रास या कौर रूप में जो आहार ग्रहण किया जाता है उसे प्रक्षेपाहार कहा जाता है। इसे कवलाहार के भी नाम से जाना जाता है। मनुष्य, पशु अपना आहार कवलाहार रूप में ही ग्रहण करते हैं। वैज्ञानिकों की भी मान्यता कवलाहार के संबंध में जैनाचार्यों के समान ही है। आहार ग्रहण करने की प्रक्रिया कि इस व्याख्या के पश्चात् हमारे समक्ष यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि कौन से जीव को ओजाहारी माना जाए, किसे रोमाहारी या प्रक्षेपाहारी माना जाए। क्योंकि कोई जीव अगर ओजाहारी है तो वह रोमाहार प्रक्रिया द्वारा ही आहार ग्रहण कर रहा है। कोई एक अवस्था में मात्र ओज को ही आहार रूप में ले रहा है तो किसी अन्य अवस्था में वह रोमाहारी भी है और कभी-कभी प्रक्षेपाहारी भी। कहने का अर्थ यह है कि किस प्रकार हम यह स्पष्ट रूप से जान लें कि वह जीव मात्र ओजाहारी है, या रोमाहारी है या कवलाहारी है या तीनों में से किसी दो विधि से या तीनों ही विधि से आहार लेता है। इस समस्या का समाधान करते हुए सूत्तकृतांग निर्युकिंत में लिखा गया है कि ‘‘सभी अपर्याप्त जीव ओजहारी हैं’’ इसे अतिरिक्त जब तक औदारिक रूप में दृश्यमान शरीर उत्पन्न नहीं होता, तब तक तैजस और कार्मण शरीर तथा मिश्र शरीरों द्वारा भी ‘ओज’ को ही आहार रूप में ग्रहण किया जाता है। इसके साथ-साथ औदारिक शरीर की उत्पत्ति होने के बाद भी जब तक इन्द्रिय, प्राण, भाषा, मन की उत्पत्ति नहीं होती तब तक प्राणी ओजाहार विधि से ही आहार लेते हैं। अर्थात् पर्याप्त अवस्था पाने के पूर्व जीव ओजाहारी ही होता है।
अपर्याप्त जीव जब पूर्ण विकसित हो जाते हैं तो अपना आहार लोमाहार प्रक्रिया द्वारा भी लेते हैं। क्योंकि विकसित जीव की इन्द्रियाँ विकास की अवस्था को प्राप्त कर लेती हैं और त्वचादि के माध्यम से भी आहार ग्रहण करने लगती है। यही कारण है कि गर्भ में पल रहा शिशु शीतलता आदि संवेदनाओं को ग्रहण करता है और उसी के अनुरूप अपने मनोभावों को भी व्यक्त करता है। अर्थात् अगर यह शीतलता उसके अनुरूप है तो वह प्रसन्न होता है और विपरीत होने पर अप्रसन्न होता है। अर्थात् वह लोमाहार क्रिया द्वारा आहार ग्रहण करता है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि यही विकसित शिशु जब गर्भ से बाहर आता है तो अपना आहार कवलाहार के रूप में भी लेता है। अर्थात् गर्भस्थ शिशु जब पर्याप्त अवस्था में रहता है तो ओजाहारी होता है। विकास की अवस्था में आ जाने के बाद ओजाहारी और लोमाहारी दोनों प्रक्रियाओं से आहार लेता है। जब वह गर्भ से बाहर निकल आता है उस समय वह लोमाहारी एवं कवलाहारी दोनों ही विधि से आहार लेता है। तात्पर्य यह है कि पशु या मानव तीनों की विधियों से आहार लेते हैं।
वनस्पति ओजाहार एवं लोमाहार के रूप में जीवन पर्यंत आहार लेते हैं। क्योंकि वनस्पति जड़ से जलीय घोल को सोखते हैं तथा पत्तियाँ, तनाओं आदि के द्वारा गैसों का शोषण करते हैं ये क्रमशः लोमाहार एवं ओजाहार विधि द्वारा ग्रहण किया हुआ आहार होता है। अतः यह स्पष्ट हो गया कि अपर्याप्त जीव ओजाहारी है। विकसित जीव ओजाहारी, लोमाहारी तथा लोमाहारी कवलाहारी है। वनस्पति लोमाहारी एवं ओजाहारी हैं। जैन दर्शन में प्रतिपादित नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चतुर्गतियों का निर्धारण किया गया है। इनमें से देवता और नारकी कवलाहारी नहीं हैं तथा तिर्यच और मनुष्य कवलाहारी हैं बिना कवलाहार लिए इनका शरीर नहीं टिक सहता है क्योंकि ये औदारिक शरीरी हैं और औदारिक शरीर को टिकाए रखने के लिए कवलाहार आवश्यक है। पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भी कवलाहारी नहीं हो सकते क्योंकि इन्हें मात्रा एक इन्द्रिय स्पर्श की होती है और यह स्पशर्प त्वचा के द्वारा ही होता है। त्वचा के द्वारा लोमाहार ही संभव है। अतः ये या तो ओजाहारी हो सकते हैं या लोमाहारी या दोनों। वनस्पति के बारे में तो यह पूर्व में ही बता दिया गया है कि ये ओजाहारी एवं लोमाहारी साथ-साथ हैं।

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