अनुपम खेर की व्यथा कथा: श्रवण शर्मा

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मृणाल पाण्डेय के उपदेशात्मक  विचार  पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि वे कांग्रेस के प्रति अंध निष्ठां के अपने पारिवारिक संस्कार से ऊपर  नहीं उठ पायीं हैं, ऐसा  हो भी क्यों ना आखिर उन्हें उसी के कारण प्रसार भारती का अध्यक्ष बनाया गया था.आखिर उन्हें किस हक़ से यह अधिकार प्राप्त है कि वे अनुपम खेर  जैसे प्रतिष्ठित और आज भी पूर्णतया सक्रिय कलाकार की, सलाह देने के बहाने, निम्न स्तर की आलोचना के गंदे खेल में शामिल हों.उन्हें किस बात का गुमान है या अपनी किस उपलब्धि का अभिमान है?अनुपम खेर को करोड़ों लोग जानते हैं और मृणाल पांडेय को जानने वाले शायद कुछ हज़ार भी न हों.कश्मीर घाटी में पंडितों की नृशंस हत्याएं और उनका अंतिम रूपसे सामूहिक पलायन शायद मृणाल पांडेय की संवेदना के लिए एक सामन्य घटना हो पर अनुपम खेर और करोड़ों भारतीय आज भी उस दर्द और पीड़ा का हिस्सा हैं.उन्होंने इस संहार को अपनी कला के माध्यम से उठाने के अनुपम खेर के प्रयास को राजनीतिक प्रयास की  गाली देते हुए हैडमास्टरनी की तरह नसीहत दे डाली कि बेहतर हो अनुपम खेर अपना ध्यान और प्रतिभा कला पर केंद्रित करें न की बंधु कलाकारों की आलोचनाओं पर.यह सलाह मृणाल पांडेय पर भी लगती है या पर- उपदेश की कुशलता अलग ही होती है? मैं उनसे एक सवाल पूछने की धृष्टता करना चाहूँगा कि यदि कोई अत्याचार पहाड़ के ब्राह्मणों पर या अन्य पहाडियों पर  होता तो क्या उनकी लेखनी शांत ही रहती?

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