Bishada Ka dard poem by Abhimanyu Pandey – Aditya , Journalist #press
बिषहाड़ा का दर्द……
न संसद हूँ,न रणभूमि,फिर भी बन गया अखाड़ा हूँ।
एक चिंगारी से धधक उठा,मैं दर्दभरा बिषहाड़ा हूँ।
मैं गवाह हूँ राजनीती के ऐसे गंदे खेल का।
जहाँ क़त्ल हुआ है हिन्दू मुस्लिम के बुनियादी मेल का।
जहाँ मंदिर की मीनारों से जाने कैसा उद्घोष हुआ।
बस शोर बढ़ा और भीड़ चली,सबका विवेक खामोश हुआ।
सबकी आँखों में खून चढ़ा,सब बौराये से दिखते थे।
ये मेरे आँगन के बच्चे क्यों बहकाये से दिखते थे।
सब खुद ही शिकायत करके खुद से ही कानून बना बैठे।
दोषी भी खुद तय कर डाला और खुद ही सज़ा सुना बैठे।
कानून रौंदते हुए बढे,चोटिल कर मेरी साख़ को।
कल तक जो चच्चा-चच्चा थे,मारा है उस इखलाख को।
मैं चौंक गया मेरी धरती पर ऐसा कभी न होता था।
जब भी मस्जिद से आह उठी तो गांव का मंदिर रोता था।
(अभिमन्यु पाण्डेय”आदित्य”)
ये प्रेम की धरती होती थी,सब गीत प्रेम के गाते थे।
होली,दीवाली,ईद,दशहरा मिलकर साथ मानते थे।
था पहली बार ये खून बहा,न जाने क्या इसबार हुआ।
मैं अधीर,बेसुध,शर्मिंदा,बर्बाद हुआ लाचार हुआ।
हिम्मत की मैंने जब अपने बच्चों को खुद समझाने की।
फिर लोग सियासी पहुँच गए और जुगत हुई उलझाने की।
मेरे आगे मेरे बच्चों को हिन्दू- मुस्लिम कर डाला।
मेरे सौहार्द में नेताओं ने ज़हर सियासी भर डाला।
कुर्सी की ख़ातिर कब तक ऐसा ख़ूनी खेल रचाओगे।
भारत माँ के दो बेटों को कब तक ऐसे लड़वाओगे।
एक माँ के खून को देख तुम्हे दंगे भड़काने आते हैं।
उनका क्या जो बूढी माँ को वृद्धाश्रम पहुंचाते हैं।
मैंने गर किये सवाल तो तुम जवाब ही न दे पाओगे।
मुझसे गर आँखें मिल भी गयीं तुम धरती में गड़ जाओगे।
मैं चुप हूँ मुझको चुप रहकर मातम तो मनाने दो यारों।
यहाँ फिर दो भाई एक रहें माहौल बनाने दो यारों।
मैं हाथ जोड़कर कहता हूँ,न मन से इतने क्रूर रहो।
मैं फिर से कोशिश कर लूँगा,नेताओं बस तुम दूर रहो।
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