मशहूर लेखिका संगीता शर्मा ने बताया “ऊंची दुकान फीके पकवान ” का महत्व , पढें पूरी खबर

ROHIT SHARMA

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ऊंची दुकान फीके पकवान की कहावत तो आप सभी ने बहुत अच्छे से सुनी ही होगी दोस्तों और यह कहावत सरकारी कार्यालयों पर तो एकदम माफिक बैठती है जिन्हें काम तो एकदम समय पर चाहिए, दुरुस्त चाहिए लेकिन सुविधाओं के नाम पर ठन – ठन गोपाल और यह केवल किसी एक महकमे विशेष की बात नहीं है बड़े से बड़े प्रतिष्ठित संस्थानों के भी यही हालात है जिनसे हम सभी अक्सर रूबरू होते रहते है। जहां सुविधाओं के नाम पर कोरी बकवास हो और जब भी कभी आप किसी चीज की मांग करें तो आपको ठेंगा दिखा दिया जाए। ऐसे में काम क्या कोई खाक करेगा।

 

” जब डे टू डे के काम को पूरा करने की
जद्दोजहद में ही पूरा दिन निकल जाए
ऐसे में मल्टिपल एनर्जी और उत्साह
बोलो तो, आख़िर कोई कहां से लाए !! ”

ये चाटुकार, चमचे, करछी, डोने, भगोने सरीखे महानुभाव, इनको जब अपनी और अपनी बिरादरी की जेबे गरम करनी हों तो अपनी टेबल के नीचे से सारा माल सरका लो, सारी मलाई खा जाओ, किसी भी तरीके से मेनुप्लेशन करके लेकिन जब बात आए किसी विभाग/अनुभाग को सुविधाएं मुहैया कराने की फैसिलिटेशन की तो ये तो हो गए भइया चारों खाने चित्त और तो और साल दर साल कितने भी अनुरोध पत्र, कितने भी निवेदन, आवेदन आप करते रहिए अंततः आपको यही सुनने को मिलेगा कि ऑफिस से कंप्यूटर, प्रिंटर आदि आपको नहीं मिल रहा है तो क्या हुआ अपने फोन से काम करों। आपके पास तो स्मार्टफोन है उससे दफ्तर का काम करो और नहीं है तो खरीदो भले तुम्हारी जेब अलाऊ करे या ना करे…. फ़िर चाहे चोरी करो या डाका डालो लेकिन दफ्तर से तुम्हें कुछ नहीं दिया जाएगा भले दफ्तर का ही काम करना है तो क्या चाहे जैसे भी करो समय पर काम पूरा करो…

और सोने पर सुहागा तो यह कि अगर आपके पास परिचर यानी पियुन नहीं है तो क्या हुआ आप खुद जाकर फाइलें दे आइए, डाक बांट दीजिए…. टाइपिस्ट नहीं है तो आप खुद सक्षम है टाइपिंग कीजिए और तो और काम से कम आप सन पचपन में मिले मानदेय का मान तो रखिए….ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला….

नोटिंग ड्राफ्टिंग फाइलों के निपटान के साथ-साथ क्या हो गया अगर आपको डाक भी बांटनी पड़ गई तो, अगर फाइलें भी एक सेक्शन से दूसरे सेक्शन में लेकर जानी पड़े तो, क्या फर्क पड़ता है अगर स्टेशनरी के नाम पर आपको महीनों इंतजार करना पड़े, क्या फर्क पड़ता है अगर अंतिम सांसे लेता हुआ कंप्यूटर आपको बार-बार कभी भी प्राण पखेरू हो जाने की धमकी दे, क्या फर्क पड़ता है अगर आपके पास कंप्यूटर प्रिंटर के साथ-साथ स्केनर भी नहीं है तो भी आपका फर्ज बनता है कि आप भिखारी बने दर-दर की ठोकरें खाएं एक विभाग से दूसरे विभाग तक कृपया कुछ कागज स्कैन कर देने की गुहार लगाएं और मोबाइल जिंदाबाद तो आपके पास है ही और नहीं भी है तो गुहार लगाने के साथ-साथ चाहे जैसे भी करें कोविड-19 के चलते इन सब सुविधाओं के अभाव के बावजूद भी ई-मेल और ई ऑफिस से ही सारा काम निपटाएं….

क्या फर्क पड़ता है दफ्तर का काम है आखिर करना तो पड़ेगा ही चाहे जैसे करें, जोड़ तोड़ की और वैसे भी हमारा संस्थान इतना प्रतिष्ठित है इतना नेम – फेम है इसका, आख़िर इस नेम – फेम, ऊंची दुकान और हमारी थेगले लगी फटे हाल दफ्तर की कंडीशन को दबाना, छुपाना, जगजाहिर होने से बचाना भी तो तुम्हारा ही काम है न… आख़िर तुम्हें अपने जीवन के अंतिम सांस तक गिरते, पड़ते, भागते, दौड़ते, हांफते रास्ते मरते जीते हर पल हर सांस में अपने दायित्व का भली-भांति निर्वहन तो करना ही होगा।

भले आप उस सीट पर इसी प्रकार इन्हीं परिस्थितियों में काम करते जाने को विवश रहें या पलायन करें या विरोध…..स्थितियां हर हाल में समान ही रहने वाली हैं और और आपने यह तो सुना ही होगा कि चिकने घड़ों पर पानी रुकता भी कहा हैं सदियों से..

और तो और इस कोविड -19 के समय में अगर एक कमरे में दो-तीन लोग बैठे हैं और पूरा दिन CO2 और O2 का आवागमन जारी है…. तो क्या हुआ दरवाजा खोलकर बैठिए वेंटिलेशन अपने आप ही हो जाएगा उसके लिए किसी और चीज, झरोखे की क्या आवश्यकता है भला…..एक सेक्शन में अगर एक से अधिक लोग हैं और एक ही फोन है तो भी कोविड -19 से डरने की जरूरत नहीं है रे बाबा…इसके साथ जीने की तो आदत डाल लीजिए अब। भले उस एक ही फोन को दो-तीन लोग मुंह, कान पर स्पर्श करें तो क्या!!!! आपको एक अतिरिक्त हैंडसेट दिया जाना फिलहाल संभव नहीं, ये किसी भी संगठन के लिए एक भगीरथ प्रयत्न सरीखा कार्य है….

और सबसे बड़ी समस्या मैन पावर की… आपके पास चाहे गधा टाइपिस्ट हो, उसको यूनिकोड में टाइप करना आए या ना आए लेकिन आप उसी से काम चलाएं और अगर आप किसी नए टाइपिस्ट की मांग करेंगे या आप अपने विभाग में एक परिचर, ग्रुप डी इंप्लाई की मांग करेंगे तो करते रहिए मांग और कीजिए इंतज़ार….लंबा इंतजार….1 साल, 2 साल, 3 साल या साल दर साल…. कभी ना कभी तो आप की गुहार ज़रूर सुनेंगे माई

ऐसी क्या बात है भला सरकारी कार्यालय है भई देर से ही सही मुराद पूरी जरूर होगी आपकी।

फिर क्या फर्क पड़ता है… आपका विभाग कोई इतना महत्वपूर्ण थोड़ा न है !! भले तब तक विभाग का काम लंबित होता रहे, उस विभाग में काम करने वाले कार्मिक होते रहें परेशान, क्या फर्क पड़ता है इन सब बातों से लेकिन सुनवाई तो ऊपर वालों के अपने हिसाब से, उनकी इच्छा से ही संभव होगी न जनाब।

” फ़िर जब वही एक ऊपरवाला
अपने से और अधिक ऊपर वाले को
ठीक से समझाने ही न चाहे दिल के नाले
तो फिर कोई और क्यों कर आपके लिए खोलें
अपनी बंद – बेशकीमती तिजोरियों के ताले और
अधीनस्थ के नाम पर गैजेट इश्यू करा
उच्च अधिकारियों संग बंद कमरे में जो
बिना अपने संवर्ग के हेर-फेर से
ख़ुद ही निरीक्षण को निपटा ले
यही सब तो हैं बाबू….
ऊंची दुकान फीके पकवान वाले। ”

अथ श्री ऊंची दुकान फीके पकवान व्यथा – कथा पुराण समाप्त….

बोलो श्री इति कथा पुराण – ऊंची दुकान फीके पकवान वाले बाबा की जय।

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