दिनांक 25 मई को पावन चिंतन धारा चैरिटेबल ट्रस्ट, गाजियाबाद द्वारा आयोजित साधक परिवार सत्संग में गीता अध्याय-17 और ‘गप्प चैराहा’ कार्यक्रम में सद्गुरु श्री पवन सिन्हा जी के व्याख्यान

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दिनांक 25 मई, 2014 को मेवाड़ इंस्टीट्यूट के सभागार में पावन चिंतन धारा आश्रम द्वारा आयोजित साधक परिवार सत्संग में श्रीगीता के विवेचना के अंतर्गत अध्याय-17 पर विवेचना सविस्तार की गई। कार्यक्रम में विषय पर व्याख्यानकर्ता थे- श्रीगुरु पवन सिन्हा जी, जो देश-विदेश में ’एस्ट्रो अंकल’, ‘गुडलक गुरु’ तथा आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में विख्यात हैं।
‘‘ यदि जीवन में सीखने की ललक है तो एक-एक सेकेण्ड आपको सिखा जाएगा कि जीवन सार्थक हो जाएगा और कष्ट की अनुभूति नहीं होगी।’’
सर्वप्रथम श्रीगुरु जी ने आश्रम की पावन प्रार्थना करके ईश्वर का आवाहन हुआ। आश्रम के ऋषिकुमार श्री भीष्म जी ने भूमिमंत्र का उच्चारण समझाते हुए उसके अर्थ को समझाया। गौरक्षा अभियान के लिए सेवा कार्य करने वाले श्री फैज अहमद जी को, आध्यात्मिक व्यक्तित्व श्री सुरमुख जी का, और ईमानदारी का परिचय देने वाले एक आॅटो ड्राइवर श्री आशीष भैया का अभिनंदन किया गया।
श्रीगुरु पवन सिन्हा जी ने विवेचना प्रारंभ करते समय कहा कि श्रीगीता का 17वां अध्याय अतिआवश्यक है। सत्संग की महत्ता का वर्णन करते हुए बताया कि सत्संग में मीमांसा होनी चाहिये, तथ्य होनी चाहिए, तभी सार्थकता साबित होती है।
कार्यक्रम में उपस्थित सभी सदस्यों से श्रीगुरु ने प्रश्न किया कि श्रद्धा से ईश्वर के समक्ष सर झुका लिया तो यह पूजा सार्थक हुई या नहीं क्योंकि यही प्रश्न अर्जुन ने गीता के 17वें अध्याय में श्रीकृष्ण से पूछा कि इस प्रकार की पूजा अगर हुई तो यह सात्विक हुई या तामसिक तो श्रीकृष्ण ने बहुत ही सहज ढंग से बताया।
उन्होंने कहा यदि मेरी पूजा ईश्वर के इतर हुई तो यह सात्विक पूजा नहीं हुई। श्रीगुरु जी ने बताया कि वह हमेशा तथ्य कोे जांचते और परखते हैं। पूजा हमेशा सात्विक होनी चाहिए। केवल ईश्वर के लिए करना चाहिए न कि किसी और के लिए। पूजा तभी सार्थक होगी जब हम उनके कार्य करेंगे, सेवा करेंगे।
उन्होंने बताया कि किसी को नहीं पता कि मथुरा के बाद के कृष्ण कहां थे? वह सबसे पहले काशी गए और वहां उन्होंने यज्ञ करना सीखा, इसी प्रकार हम सभी को भी सीखते रहना चाहिए। यज्ञ में हम अपने मानसिक और चारित्रिक विकारों को समाप्त करने के लिए हवन करते हैं। वहां से श्रीकृष्ण जी ने उज्जैन प्रस्थान किया और वहां 64 कलाएं सीखीं, संदीपन ऋषि से उन्होंने कलाओं का ज्ञान लिया। उसके बाद उनके पास संपूर्ण विद्या आ चुकी थी। वह बहुत तेज बुद्धि के थे। वह कभी कहीं उलझे नहीं, किसी भी विषयों में लिप्त नहीं हुए।
‘‘जो व्यक्ति किसी विषयों से निर्लिप्त रहते हैं तो मन बहुत अच्छा कार्य करेगा।’’
श्रीकृष्ण की एक विषेशता है कि भाव प्रधान हैं वह किसी भी विषय में लिप्त नहीं होते और श्रीकृष्ण की एक और विशेषता यह है कि उनकी एकाग्रता बहुत अधिक थी। वह विकारों से मुक्त रहते हुए राजकाज का कार्य कर रहे हैं।
श्रीगुरु पवन सिन्हा जी ने ऐसे ही अनेक विशेषताओं का वर्णन करते हुए श्रीगीता के 17वें अध्याय की वृहद विवेचना की।
विवेचना के प्रारंभ में ही आश्रम द्वारा अनेक नए सेवा कार्यों की विस्तारपूर्वक जानकारी श्रीगुरु पवन सिन्हा जी के श्रीमुख के माध्यम से साधक परिवार सदस्यों को प्राप्त हुई जिसमें गौ सेवा, धरा सेवा, जिसके माध्यम से धर्म की सेवा आदि होती है।
प्रत्येक माह नियमित आयोजित होने वाले गप्प चैराहे में श्रीगुरू भैया जी ने बच्चों को ‘एकाग्रता प्राप्त कैसे करें?’ विषय पर अनेक सूत्र दिए।

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