हम साक्षर हैं या शिक्षित ? : प्रोफ़ेसर पी.के.आर्य

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एक बार मुनि विदुर से युधिष्ठिर ने पूछा -कौन व्यक्ति शिक्षित है ?’ विदुर का उत्तर था- ‘जिसका जीवन सार्थक है।’ यही प्रश्न मैं आज आप से पूछता हूँ। इतने साधन और शिक्षा के इतने विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद क्या हम अपने बच्चों को वह शिक्षा दे पाने में सफल हो सके ; जो उनके सार्थक जीवन का आधार बनती ? क्या हम अपनी अग्रिम पीढ़ी को मानवीय मूल्यों और संस्कारों की वह दिव्य धरोहर सौंप पा रहे हैं ; जिसकी दहलीज पर कदम रखकर उनका जीवन पाँखुरी-पाँखुरी खिल सकता है। सवाल यह भी है कि हमारे बच्चे क्या वास्तविक अर्थों में सार्थक शिक्षा और सार्थक जीवन की ओर उन्मुख हैं ?

बदलते हुए परिवेश में सब कुछ बदल रहा है। जीवन का सर्वाधिक मूल्यवान तत्त्व शिक्षा भी इससे अछूती नहीं ! जिन व्यक्तियों के कंधे पर बैठ भविष्य अस्तित्व के नक्षत्रों की गणना कर रहा है ,वे जरा जीर्ण और अशक्त सिद्ध हो रहे हैं। नैतिक रूप से पतित और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे व्यक्ति बच्चों को शिष्टाचार की शिक्षा दे रहे हैं। मैं ऐसे कईं शिक्षकों को जानता हूँ जिन्हें यदि 500 रूपये भी अधिक का ग्रेड मिल जाये तो वे आज ही स्कूल छोड़कर नगर निगम ज्वाइन कर लें। बहुत सी महिलाएं बतौर शिक्षिका सिर्फ स्कूलों में इसलिए जाती हैं क्योंकि वे सास या परिवार की किच-किच से दूर थोड़ा एकांत चाहती हैं। उनका प्राथमिक चयन शिक्षा नहीं है ! जब हमारे मौलिक ध्येय ही कुछ ओर हों तो कृत्यों से उत्सर्जित परिणाम सर्वथा भिन्न होंगे ही।

पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है जो कुछ भी बड़े करते हैं छोटे उसका स्वाभाविक अनुसरण करते हैं। आज विश्वविद्यालय प्रतिस्पर्धा के एयरपोर्ट बने हुए हैं। अनाप -शनाप ढंग से बच्चों के अहंकार को पोषित  किये जाने के अघोषित पाठ्यक्रम चल रहे हैं। लोगों के सिरों को पायदान बनाकर आगे बढ़ने के गुर सिखाये जा रहे हैं। अकड़ और अव्वल आने का नशा सभी के सर पर सवार है। सभी एक अप्रत्यक्ष दौड़ में शरीक हैं बिना यह जाने की आखिर जाना कहाँ हैं। शिक्षक एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में बच्चों के कोमल मन का दुरुपयोग करते हैं। एक ओर डिग्रियों के ढेर लगते जाते हैं दूसरी ओर व्यक्ति की गरिमा को दीमक। सर्वाधिक शिक्षित युवक -युवतियां सर्वाधिक मानसिक संताप से ग्रस्त हैं। यदि शिक्षा जीवन की उलझनों से उबारने का हेतु थी तो फिर यह उलझाव कैसे पैदा हो गया ? अंग्रेजी माध्यमों में पढ़ने वाले बच्चे अपने माता -पिता और रिश्तेदारों को गंवार और फ़ूहड़ समझने लगते हैं। कुछ प्रतिशत का अपवाद हो सकता है लेकिन अधिसंख्या ऐसे ही बच्चों की हैं।

हॉस्टल में रहने वाले युवक -युवतियां वीकेंड आने का इंतज़ार करते हैं। शुक्र और शनि की रातें निकट के पिकनिक स्पॉटों पर गुलज़ार होती हैं। कक्षाएं खाली पड़ी हैं और गेस्ट हाउसेस गुलज़ार हैं। समय से पहले फल पक तो सकते नहीं अतः विकृत होकर अपनी जीवन जड़ों से टपक रहें हैं। जब शिक्षा का समय था तब कुछ ओर करेंगे तो जब कुछ ओर करने का वक़्त आएगा तब पढ़ाई करनी पड़ेगी। जीवन के वर्तुल में हर चीज़ एक संतुलित गति में गमन करती है। रोज़ चीनी और मलाई खाने वाले के लिए सभी मिठाईयां एक दिन डॉक्टर को बंद करनी पड़ती हैं। उसका कोटा पूरा हो गया समझो।मेरे शैक्षिक जीवन में मुझे अपने विद्याथियों को अत्यंत निकट से देखने का मौका मिला ;उसी के आधार पर ये सब बातें आपसे शेयर कर रहा हूँ। कईं युवक युवतियों के माता -पिता जब अपनी बात नहीं मनवा पाते, तब मुझे फ़ोन करके कहते हैं आप बोल दो ना आपका कहना मानते हैं बच्चे ! कहाँ पर चूक हो जाती है कि हमारे अपने जिगर के टुकड़े हमारे सामने आन खड़े होते हैं।

हमारे आज के अभिभावकों विशेष तौर पर महिलाओं को एक बात साफ़ तरह से समझ लेनी चाहिए कि विद्यालय ही गुणों के अधिष्ठान के एक मात्र स्थान नहीं हैं। जिन बच्चों को आप अपवाद की श्रेणी में रखना चाहेंगे उन बच्चों के घर ,माता -पिता और परिवेश में भी आप भिन्नता पाएंगे। जिस स्कूल में कलाम साहब पढ़े थे वहां के सभी बच्चे तो वैज्ञानिक नहीं बन गए। व्यक्ति की शिक्षा से बड़े उसके संस्कार होते हैं। व्यक्ति से बड़ा उसका व्यक्तित्व। व्यक्तित्व बनता है आप के कृत्यों से और आपके कृत्य जन्मते हैं आपकी सोच और सरोकारों से। झूठ और पाखंड के परिवेश में आप बच्चों से सदाचार की अपेक्षा करें तो बबूल लगाकर आम खाने की इच्छा रखने जैसी बात होगी। टेलीविज़न के सीरयलों और सोशल नेटवर्किंग की साइटों से भी  इतर एक दुनियां है, जहाँ आप बच्चों के सच्चे साथी बन सकते हैं। कार्य और कारण का परस्पर सम्बन्ध है जो चीज़ घर में नहीं मिलेगी बच्चे उसे बाहर खोजेंगे ही,फिर चाहे मामला प्यार और अपनत्व का ही क्यों न हो ?

जिन महिलाओं के पति उन्हें अपेक्षित प्रेम नहीं करते किन्हीं अर्थों में वे माताएं भी अपने बच्चों को यथेष्ट प्रेम नहीं दे पातीं। उजाड और उदास मन के बगीचों में उत्सव और आनंद के पुष्प नहीं झरते। जीवन की गंगा में जिन्हें नहाने का पुण्य अर्जन करना है उन्हें थोड़ा नीचे उतरना ही पड़ेगा। डुबकियां के अनुभव उपरान्त ही सद्य स्नात आनंद की उपलब्धि हो सकती है।

बुद्ध, महावीर,राम ,कृष्ण और शिवाजी के देश की माताओं को क्या यह याद दिलाना पड़ेगा कि माता के स्नेह आँचल में मिली शिक्षाएं जीवन संघर्ष के रण में विजयी होने का प्राथमिक बिंदु सिद्ध होती हैं। औपचारिक शिक्षा से कहीं अधिक मूल्यवान नैसर्गिक गुणों की प्रेरणा है। यदि व्यक्ति गुणवान होगा तो जिस पद पर होगा उसकी गरिमा को बढ़ायेगा और यदि सिर्फ पढ़ा -लिखा ही रह गया तो उस पद पर बैठने की अहर्ता तो रखेगा लेकिन लोग उसके वहां से विदा होने का बेसब्री से इंतज़ार करते रहेंगे।

 

डिग्रियों के उलटफेर में बच्चों को मत उलझाइये यह ज़रूरी तो है अनिवार्य नहीं। सिर्फ धन अर्जन के लिए ही शिक्षा को सेतु मत बनाइये। मान का अर्जन भी बहुत उपयोगी है। याद रखिये दिन रात खटकर संपत्ति का अम्बार लगाने के बाद भी जब इसकी निरर्थकता अनुभव होती है तब व्यक्ति उसका एक बड़ा भाग सामाजिक कार्यों के लिए दान करने को उतावला हो उठता है। दूर क्यों जाते हैं आपके बिल गेट्स इसके ताज़ा तरीन उदाहरण हैं। बच्चों को साक्षर नहीं सही मायनों में शिक्षित बनाइये ,तब एक अच्छे और सच्चे विश्व के सृजन में हम अपने योगदान को चिन्हित करने में समर्थ हो सकेंगे -अस्तु !

आपके प्रश्न –

-मार्ग क्या है ? – बबीता राठी – कुरुक्षेत्र -हरियाणा

* सभी मार्गों के लिए एक ही मार्ग है -अध्यात्म के पथ का अनुसरण। मेरा तात्पर्य यहाँ धर्म से नहीं है। लोग धर्म और अध्यात्म को एक ही समझने की भूल कर बैठते हैं। किसी आडम्बर में फंसने की ज़रूरत नहीं हैं। जीवन को सद्विचारों से पूरित ,प्रार्थनामय ,क्षमापूर्ण,सहयोगी और शांत बनाइये। होशपूर्वक रहिये। फिर आपको ईश्वर की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, हाँ ईश्वर आपको खोजते हुए ज़रूर आएंगे।

 

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