ये आग कब बुझेगी

कश्मीर में दशकों से उपज रहा धार्मिक उन्माद अब एक बहुत बड़ा आतंक का रूप धारण कर चुका है। एकाएक यह आग जम्मू मे भी बहुत तेजी से फैल रहा है। जिधर देखो उधर मस्जिदों और मदरसों का जाल बुना हुआ है और ये जम्मू में भी बहुत तेजी से फैल रहा है। उनका उद्देश्य कोई शिक्षा या प्रवचन प्रदान करना नही अपितु धर्म के नाम से संघठित होकर गैर जिम्मेदाराना मांग कश्मीर की स्वयत्तता है। जहां एक बड़ा वर्ग कश्मीर को पाकिस्तान के साथ देखना चाहता है जो अपने आप को अलगाववादी नेता कहतें हैं और ये लोग कश्मीर के नौजवानों को भटकाकर पत्थरबाजी एवं अन्य आतंकवादी गतिविधियों मे धकेल रहें हैं। पाकिस्तान कहता आया है कि वह केवल कश्मीर अलगाववादियों का केवल राजनीतिक समर्थन करता है, जबकि कुछ विशेषज्ञ बतातें हैं कि वह 1947 से ही उन्हें रणनैतिक और सैन्य मदद देता आया है। कुछ विद्वानों का दावा है कि पाकिस्तान के संस्थापक माने जाने वाले जिन्ना उसी समय से जिहादियों के साथ सशस्त्र सेना से असंबन्ध सैन्य दल को कश्मीर मे घुसपैठ करने भेजा करते थे। इसका नतीजा 1948 का भारत पाकिस्तान का युद्ध है जिसमे वो कश्मीर के एक भाग को हथियाने मे सफल रहा जिसे वो आजाद कश्मीर कहता है। 1965 का युद्ध भी कश्मीर को लेकर हुआ था।
अगर कश्मीर मतान्तरित नही हुआ होता और वहां हिन्दू और बौद्ध ही होते तो ये समस्या नही होती। समस्या होती गरीबी और मूलभूत आवश्यकताओं की जोकि बाकि भारत मे भी है। राजनीति जब ईश्वर – अल्लाह के नाम से चलती है तब वह आज की समस्या का हल नही होने देती है और साधारण जनमानस मे कटुता पैदा करती है।
क्या जो समस्या कश्मीर की वह जम्मू की भी है? क्या लद्दाख भी यही चाहता है जो हुर्रियत नेता चाहते हैं? जो जम्मू के लिए समस्या है वो कश्मीर के लिए क्यों है? यह मूलतः मनोवैज्ञानिक समस्या है। हिन्दू भारत के साथ जुड़ा रहना चाहते हैं और मुस्लिम अपने आप को उनसे अलग चाहते हैं और उन्हें अलगाववादी विचार धारा की और धकेल दिया जाता है। यह मनोविज्ञान जनमत संग्रह के अनायास स्वीकार से पैदा हुआ है। इतिहास मे कहीं भी कभी भी वोट देकर किसी राष्ट्र की राष्ट्रीयता का निर्णय नही होता है। यह नेहरू युग का ऐसा फैसला है कि जो वास्तव मे हमारी मनोवैज्ञानिक सोच की जड़ है। जनमत संग्रह की सोच के कारण कश्मीर घाटी मे कश्मीरी नेताओ की भाषा आजादी, स्वशासन , खुदमुख्तारी की ही गयी है और पाकिस्तान के रहते उनका धर्म संकट बरकरार है और वास्तव मे समस्या कश्मीर नही पाकिस्तान है और उसका निबटारा होना बहुत जरुरी है। मनोविज्ञान की समस्या का इलाज आपरेशन नही होता है। उसका इलाज मन को सही करना है। यदि युद्ध अवस्यंभावी है तो युद्ध होगा लेकिन उसकी आशंकाओं से भयभीत होना इस समस्या का समाधान नही है।
कश्मीर मे कई ऐसे संघठन सक्रिय हैं जो भारत विरोधी गतिविधियों मे लगे हुए हैं। जिनमे सभी के पास हथियार नही थे परंतु 1989 से मुस्लिम चरमपंथ शुरू होने के बाद वहां चरमपंथियों की संख्या सैकड़ों से हजारों मे हो गयी। इनमे प्रमुखता से पाकिस्तान समर्थित हिजबुल मुजाहिदीन सक्रिय है।
आतंकवादियों के जनाजे मे लाखो लोग और उसके बाद हिंसा भारत विरोधी मनोवैज्ञानिक मानसिकता का बहुत बड़ा उदाहरण है और ये मानसिकता धीरे धीरे पुरे देश मे फैलती जा रही है । और ये भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए बहुत बडे खतरे की घण्टी है। अगर इस पर कड़ाई से लगाम नही लगाई गई तो देश को ग्रह युद्ध के दौर से भी गुजरना पड़ सकता है।
भारत सरकार और सभी विपक्षी दलो को एकजुट होकर राष्ट्रहित मे कठोरता से कश्मीर समस्या का निवारण करना चाहिए और पूरे देश मे एक समान कानून लागू करना चाहिए।
आलेख- चन्द्रपाल प्रजापति (नोएडा)
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