टेन न्यूज़ द्वारा “बैंकों का निजीकरण” विषय पर परिचर्चा का हुआ आयोजन , विशेषज्ञों ने दिए महत्वपूर्ण विचार
Ten News Network
नई दिल्ली :– केंद्र सरकार की निजीकरण की नीति के खिलाफ बैंक कर्मचारियों ने दो दिन की हड़ताल की। आखिर क्या वजह रही कि बैंकों के कर्मचारियों ने दो दिन हड़ताल की , बता दे कि हाल ही में सालाना बजट पेश करने के दौरान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने विनिवेश के ज़रिए 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने की घोषणा की थी. केंद्र की मोदी सरकार कई सरकारी कंपनियों के साथ-साथ कुछ बैंकों के निजीकरण के ज़रिए इतनी रक़म जुटाएगी।
वही इस मामले में टेन न्यूज़ द्वारा “बैंकों का निजीकरण” विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा का संचालन एबीईएस इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रोफेसर डॉ रुद्रेश पांडेय ने किया , डॉ रुद्रेश पांडेय एक वरिष्ठ समाजसेवी भी है।
साथ ही इस परिचर्चा में बैंकिंग विशेषज्ञ व बिमटेक इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर डॉ केसी अरोरा , राष्ट्रीय बैंक वर्कर्स संगठन के अध्यक्ष अश्विनी राणा , ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर एसोसिएशन के कार्यकारी अध्यक्ष विनोद धमिजा, बैंक ऑफ महाराष्ट्र के वरिष्ठ अधिकारी सिद्धार्थ राउत शामिल हुए ।
‘बैंको का निजीकरण’ विषय में बताते हुए प्रोफेसर डॉ रुद्रेश पांडेय ने बतया की “यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक एसोसिएशन ने बैंक की हड़ताल की घोषणा की यह संगठन सबसे बड़ा राष्ट्र का संगठन है, जिसमें करीब 9 मुख्य बैंक शामिल हैं। इस प्रदर्शन का कारण केंद्र सरकार द्वारा की गई घोषणा । इसमें कहा गया कि आईडीबीआई और साथ ही दो अन्य बैंकों का निजीकरण किया जाएगा। हालांकि हमारी जो यूनियन है उनका यह मानना है कि सरकार का यह कदम बिल्कुल भी वाजिब नहीं है , क्योंकि सरकारी बैंक सामाजिक जिम्मेदारी निभाते हैं , वह कभी प्राइवेट सेक्टर के अंदर में नहीं कर पाएंगे।
बैंकिंग विशेषज्ञ व बिमटेक इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर डॉ केसी अरोरा ने अपने 21 साल के अनुभव को साझा करते हुए बताया कि मैंने 21 साल तक यूको बैंक में अपनी सेवा दी है। साथ ही एक प्राइवेट बैंक में खाता धारक होते हुए सेवा भी ले रहा हूँ , तो मुझे इन दोनों का अंतर मालूम है। इसमें बैंक कर्मचारी अपने हित में नहीं देख रहे हैं और साथ ही साथ इस बदलाव को देश के हित में भी नहीं देख रहे हैं , लेकिन सरकार इसे एक प्रयोग के तौर पर ले रही है और सरकार का यह मानना है कि जैसे नेशनलाइजेशन का एक दौर था , अब यह एक प्राइवेटाइजेशन का दौर है।
साथ ही उन्होंने कहा कि ऐसा करने से प्राइवेट सेक्टर और पब्लिक सेक्टर बैंकों में एक प्रतिस्पर्धा बनी रहे, ताकि इससे ग्राहकों को फायदा मिलेगा, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है की बैंकों द्वारा सामाजिक कार्य किए जाते हैं, अगर सरकारी बैंकों का निजीकरण हो जाएगा , तो सामाजिक कार्य बंद हो जाएंगे।
राष्ट्रीय बैंक वर्कर्स संगठन के अध्यक्ष अश्विनी राणा ने कहा कि दो बैंकों का निजीकरण , किसी एक बैंक को खत्म कर देगा। सरकार ने इस बार जिस क्षेत्र में हाथ डाला है, वो बैकिंग सेक्टर है। उसके लिए यह कहा जाता है कि इसका हर क्षेत्र में अपना प्रभाव होता है। चाहे फिर वह इंडस्ट्रियल सेक्टर हो , एग्रीकल्चर सेक्टर हो या देश का आर्थिक विकास हो।
उसको डिस्मेंटल करने के लिए सरकार ने प्रयास किया है। पहले बैंक को मर्ज कर बैंकों की संख्या को कम किया गया , उस समय भी सरकार ने कहा कि नौकरियां खत्म नहीं होंगी, लेकिन हमने देखा है कि बैंक मर्ज के साइड इफेक्ट आने शुरू हो गए हैं। बैंकों का निजीकरण करना समस्या का समाधान नहीं है, निजीकरण से वास्तविक समस्या छिप जायेगी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भी निजी क्षेत्र के बैंक दिवालिया हुए थे और उनका सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में विलय किया गया था। सरकारी बैंकों की समस्या प्रशासन और नियामक ढाँचे में व्याप्त विसंगतियों के कारण है। सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण की बजाए दीर्घकालीन ढांचागत सुधार किये जाने की जरूरत है। सार्वजनिक बैंकों की समस्या केवल प्रभावी व कठोर विनियमन की कमी की है। आज बैंकिंग उद्योग को निजीकरण की नहीं बल्कि सार्वजनिक बैंकों के कामकाज की पारदर्शिता, प्रभावी विनिमयन और सुपरविजन की ज़रूरत है, जिससे बैंकों के बढ़ते एनपीए पर नियंत्रण हो सकें और उनकी वसूली हो सकें।
ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर एसोसिएशन के कार्यकारी अध्यक्ष विनोद धमिज़ा ने कहा की “एक्सपेरिमेंट की जो बात की गई , क्या यह समय एक्सपेरिमेंट का है, और जो पहले इस प्रकार के एक्सपेरिमेंट किए गए क्या वो सफल रहे, देश की आर्थिक व्यवस्था जिस स्थिति में है क्या इस तरीके के एक्सपेरिमेंट करना जायज रहेगा। मुझे लगता है इन सब विषयों पर विचार किया जाना बहुत जरूरी है। जो स्टॉकहोल्डर है उनसे चर्चा किए बिना या बिना एक शॉर्ट एनालिसिस के इस प्रकार के एक्सपेरिमेंट करना गलत होगा।
आज भारत सरकार की हर नीति को चाहें , वह आधार कार्ड बनाना हो , चाहें वह जनधन के खाते खोलना या फिर नोटबंदी का समय, बैंकों की सहभागिता को नकारा नहीं जा सकता। जो मुख्य मुद्दा इस समय है कि समाज के सबसे आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के पास सरकार की नीतियों का लाभ पहुंचना चाहिए और बैंक उसमें अहम भूमिका निभा रहे हैं।
बैंक ऑफ महाराष्ट्र के वरिष्ठ अधिकारी सिद्धार्थ राउत
ने मुख्यतः तीन बिंदुओं पर ज़ोर दिया और कहा की “प्राइवेटाइजेशन के तीन मायने हैं , जिन्हे कि हमें महत्वपूर्ण रूप से ध्यान में रखनी चाहिए। सबसे पहले यह की प्राइवेटाइजेशन होने के बाद कॉमन मेंबर्स को उससे क्या फर्क पड़ेगा, दूसरा यह है कि क्या इससे एंप्लॉयमेंट अपॉर्चुनिटी पर कुछ फर्क पड़ेगा और तीसरा यह है कि क्या उससे रिजर्वेशन पर भी कुछ महत्व पड़ेगा।
साथ ही उन्होंने कहा है कि अगर ये कॉर्पोरेट घरानों को बेच भी दिए जाते हैं तो यह एक ‘बहुत बड़ी ग़लती’ होगी. उन्होंने कहा कि अगर किसी भारी भरकम बैंक को किसी विदेशी बैंक को बेच दिया जाता है तो यह राजनीतिक रूप से अव्यावहारिक होगा।
अंत में परिचर्चा का सारांश रखते हुए डॉक्टर रुपेश पांडे ने कहा कि हमने पिछले 50 वर्षों में पूरा एक चक्र देखा और उसके बाद कई प्रकार की बदलाव भी देखने को मिले और 1990 तक आते-आते फिर से एक बार निजीकरण की चर्चा शुरू होने लगी। हालांकि इस परिचर्चा में यह साफ़ नहीं हो पाया कि क्या बैंकिंग बिजनेस है , इसके साथ ही उन्होंने सबको धन्यावाद ज्ञापित किया।