महिला आरक्षण सियासी दलों की मंशा पर सवाल

अनिल निगम

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देश में चुनावी रणभेरी बजने के साथ ही राजनैतिक दलों को देश की महिला शक्‍ति की एक बार फिर याद सताने लगी है। महिला आरक्षण पर सियासत तेज हो गई है। कांग्रेज अध्‍यक्ष राहुल गांधी ने घोषणा की है कि अगर उनकी पार्टी सत्‍ता में आई तो वे महिलाओं को नौकरियों में 33 फीसदी आरक्षण देंगे। पूर्व वित्‍त मंत्री पी चिदंबरम ने भी कहा है कि कांग्रेस 17वीं लोकसभा के प्रथम सत्र में संसद और विधानसभा में 33 फीसदी आरक्षण देने संबंधी विधेयक को पास करेगी। इसी तरह से ओडिसा के मुख्‍यमंत्री नवीन पटनायक ने ओडिसा में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा कर दी है। हर चुनाव के पूर्व महिला सशक्‍तीकरण और उनके उत्‍थान का दम भरने वाले सियासी दलों की मंशा और निहितार्थों की पड़ताल करना आवश्‍यक है।

भारत में कुल जनसंख्‍या में महिलाओं की भागीदारी 48 प्रतिशत है। लेकिन महज 26 फीसदी महिलाओं को ही रोजगार प्राप्‍त है। न्‍यायपालिका, केंद्र एवं राज्‍य सरकारों तथा राजनैतिक दलों में उनको प्रतिनिधित्‍व बेहद कम है। केंद्र सरकार ने 73वां और 74वां संविधान संशोधन कर शहरी एवं ग्रामीण स्‍थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की व्‍यवस्‍था कर दी थी। संयुक्‍त राष्‍ट्र के आंकड़ों के अनुसार संसद में महिलाओं की भागीदारी के मामले में संपूर्ण विश्‍व में भारत का 148 वां स्‍थान है। हैरान कर देने की बात यह है कि पाकिस्‍तान, नेपाल, अफगानिस्‍तान और भूटान जैसे देशों की राजनीति में भारत की अपेक्षा महिलाओं का प्रतिनिधित्‍व काफी अच्‍छा है। इस समय भारत में लोकसभा में 66 महिलाएं जबकि राज्‍य सभा में मात्र 28 महिलाओं का प्रतिनिधित्‍व है। कमोबेश यही स्‍थिति देश के विभिन्‍न राजनैतिक दलों के संगठनात्‍मक ढांचों की भी है। चुनिंदा एवं चर्चित महिलाओं को छोड़कर संगठन के प्रमुख पदों पर पुरुष ही काबिज हैं। आधी आबादी का प्रतिनिधित्‍व करने वाली महिलाओं का यह ग्राफ काफी चिंताजनक है।

सबसे अहम सवाल यह है कि टीवी चैनलों और राजनैतिक रैलियों और सभाओं में महिला सशक्‍तीकरण का राग अलापने वाले राजनैतिक दलों को महिलाओं की याद चुनाव के पहले ही क्‍यों आती है? क्‍या विभिन्‍न राजनैतिक दल महिलाओं के सचुमुच शुभचिंतक हैं या अपनी सियासी रोटी सेंकने के लिए सिर्फ पांसा फेंक रहे हैं?

मजे की बात है कि कांग्रेस पार्टी ने 14 वें लोकसभा चुनाव के पहले घोषणा कर दी थी कि वह सत्‍ता में आने के बाद संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने संबंधी विधेयक को पारित कर इसे कानून बनाएगी। उसके दस साल के कार्यकाल में वह विधेयक पास नहीं हुआ और अब भाजपा का भी 16 वीं लोकसभा का कार्यकाल समाप्‍त होने वाला है परंतु वह विधेयक संसद में पारित नहीं हुआ। अगर ये दोनों दल ही ठान लेते तो यह विधेयक अब तक कानून बन चुका होता।

निस्‍संदेह, पिछले कुछ वर्षों में भारतीय महिलाओं ने विभिन्‍न क्षेत्रों में प्रतिभा का प्रदर्शन कर भारत में ही नहीं बल्‍कि पूरे विश्‍व में अपना परचम लहराया है। ऐसे में कोई भी राजनैतिक दल समाज में महिला मतदाताओं की भूमिका को नजरअंदाज नहीं कर सकता। यही कारण है कि महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए रणनीति बनाना राजनैतिक दलों की मजबूरी बन गई है।

लेकिन दुर्भाग्‍यूपूर्ण है कि राजनैतिक दलों की मंशा महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्‍तर पर सक्षम और सशक्‍त बनाने की जगह आरक्षण देकर उनको अपनी ओर आकर्षित करने की अधिक है। उन्‍हें इसकी बिलकुल चिंता नहीं है कि आरक्षण एक ऐसा जहर है जो हमारे संपूर्ण समाज के ताने-बाने को तहस-नहस कर रहा है। दलों को तो महज अपना तात्‍कालिक लाभ-महिला वोट बैंक नजर आ रहा है। अंग्रेजी में कहावत है कि ‘चैरिटी बिगिन्‍स फ्रॉम होम’ यानि किसी भी श्रेष्‍ठ कार्य की शुरुआत अपने घर से करनी पड़ती है। राजनैतिक दल अगर वास्‍तव में महिलाओं के हितैषी हैं तो सर्वप्रथम उनको पुरुष मानसिकता को त्‍यागकर अपने दलों के आंतरिक संगठन और टिकटों के बंटवारे खासतौर से लोकसभा और विधानसभाओं चुनाव में महिलाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। अगर महिलाओं की भागीदारी सत्‍ता में बढ़ेगी तो महिला सामाजिक और आर्थिक तौर पर वह स्‍वभाविक तौर सशक्‍त हो जाएगी।

गौरतलब है कि विभिन्‍न जातियों, जनजातियों, पिछड़ा वर्ग और अन्‍य पिछड़ा वर्ग, अल्‍पसंख्‍यक वर्ग, आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के बावजूद सही मायने विभिन्‍न वर्गों के निचले पायदान पर विराजमान लोगों तक इसका लाभ नहीं पहुंच रहा। इसके प्रतिकूल सामान्‍य वर्ग की काबिल प्रतिभाओं के दिलो दिमाग में इन समुदायों के प्रति नफरत की आग सुलगने लगी है। अगर समाज में पनप रही इस द्वेष और नफरत की आग को समय के अंदर नहीं रोका गया तो यह आग भविष्‍य में ज्‍वाला बनकर सामाजिक ताने-बाने को छिन्‍न-भिन्‍न कर देगी।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार है)

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