इन विधानसभाओ चुनाव मे सपा और कांग्रेस पार ्टी ने एक दूसरे पर खेला दाव

पिछले विधान सभा चुनाओ से यह चुनाओ काफ़ी भिन्न पिछले चुनाओ में अखिलेश का बहुमत चुनाओ की घोषणा से ही दिखने लगा था इस बार राह काफ़ी कठिन है ये सपा के नए मुखिया को भी समझ आ चुका था इसी लिए कांग्रेस के हाथ के सहारे साइकिल चलाने की जुगत लगाई जा चुकी है … राहुल की बात करें तो डूबते हुए को तिनके का सहारा काफ़ी होता है और फ़िलहाल तो सत्ता में होते हुए सपा राहुल को पूरा हवाई जहाज़ नज़र आ रही है । हालाँकि कांग्रेस के लिए अकेले जीती हुई सीटें भी जीत पाना काफ़ी मुश्किल था लेकिन गठबंधन के चलते अब कुछ अधिक सीटों की भी उम्मीद की जा सकती है क्यूँकि अखिलेश ने लंगड़े घोड़े पे दाव ऐसे ही नहीं लगाया है… #गठबंधन . सत्ता की चाहत का असली चेहरा देखना हो तो मुख़्तार और माया का एक होना देख लीजिए जिस माफ़िया के चलते माया अखिलेश सरकार को गुंडा राज घोषित करते नहीं थकती थी अब सात्ता की लालसा में उसकी पार्टी का ही विलय कर लिया और मुख़्तार को कुछ सीटें हासिल करने के लिए गले लगा लिया लेकिन इस बार उसका विशेष लाभ नहीं मिलेगा क्यूँकि अत्यधिक युवा वोटर है जो सिर्फ़ दो जागह विभाजित होता दिख रहा किसी की आस्था अखिलेश में है किसी की मोदी में लेकिन युवा वर्ग गुंडों- माफ़ियाओं को पसंद नहीं कर रहा इस मुद्दे पर अखिलेश ने सही निर्णय लिया है भले ही कुछ सीटों का नुक़सान हो परंतु अन्य सीटों पर इसका लाभ अधिक मिलेगा जो बहुमत के लिए उपयोगी हो सकता है । 265+ की जुगत में दाव पेच खेलने में भाजपा भी पीछे नहीं ज़ोरदार प्रचार और लच्छेदार व्यवहार में कोई कमी नहीं सपा पे भाई भतीजा वाद का आरोप लगते लगते …भाजपा टिकट वितरण में ख़ुद ही अपने बेटों की लॉंचिंग के चक्कर में कई दिग्गज नेताओं और समर्पित कारकर्ताओं के समर्पण और सम्मान को ठिकाने लगा बैठे .और भगौडे-दलबदलके पुराधाओं को तो ऐसे गोद लिए हो जैसे कुम्भ के मेले के बिछड़े साथी मिल गए हों .. लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि किसी ने कुछ भी किया हो हर पार्टी ने टिकट वितरण में काफ़ी हद तक जीत सुनििश्चत करने का पुरज़ोर प्रयास किया है ख़ासकर भाजपा ने अपने परम्परागत वोटों के साथ पिछड़ा वर्ग को ख़ूब कसकर पकड़ा है और दलबदल नेताओं के जनाधार का भी विशेष ख़याल रखा है अगर भाजपा सत्ता हासिल नहीं कर पाती है तो उसका श्रेय नोटबंदी के सही ढंग से क्रियान्वयन ना होने को दिया जा सकता है और अगर अखिलेश की वापसी ना हुई तो उसका श्रेय (पिता-पुत्र का समाजवाद )को दिया जा सकता है हालाँकि जितना प्रचार इस घटनाक्रम ने अखिलेश को दिलवाया उतना प्रचार हज़ारों करोड़ धन ख़र्च कर के भी नहीं हो सकता था और अब सभी आरोपों से बरी होकर अखिलेश ब्राण्ड बनकर उभरे हैं । माया की माया निराली है पत्थर जनता भूल चुकी थी लेकिन उन्होंने ख़ुद ये कह कर कि "इस बार सत्ता में आई तो पत्थर नहीं लगवाऊँगी" ….जनता के उस घाव को हरा कर दिया जिसके चलते हाथी सिर के बल ज़मीन पर गिरा था । उत्तर प्रदेश के चुनाओ में सदा ही मुस्लिम निर्णायक रहा है किंतु इस बार मुस्लिम पूरी तरह किसी के साथ नहीं है सबकी अपनी अपनी विचारधारा है ।लेकिन हर पार्टी के परम्परागत वोटों के साथ जिसको ब्राह्मण-क्षत्रिय का साथ मिलेगा वो ही सत्ता में आएगी ।
जितेंद्र पाल – ten news


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